हज़रते सय्यदना अबू सालेह अब्दुल्लाह नस्र रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

हज़रते सय्यदना अबू सालेह अब्दुल्लाह नस्र रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

नसरबी सालेह का सदक़ा सालेहो मंसूर रख
दे हयाते दीं मुहीये जां फ़िज़ा के वास्ते

आप की विलादत

आप की पैदाइश मुबारक चौबीस 24, रबिउस सानी 562, हिजरी को बग़दाद शरीफ में हुई,

इस्म मुबारक व कुन्नियत

आप का नाम मुबारक “अब्दुल्लाह नस्र” है और कुन्नियत “अबू सालेह” और लक़ब “इमादुद्दीन” है ।

आप के वालिदैन करीमैन

आप के वालिद माजिद हज़रत सय्यदना अब्दुर रज़्ज़ाक रदियल्लाहु अन्हु हैं, और आप की वालिदा माजिदा का नाम “ताजुन्न निसा” उम्मुल करम फ़ज़ाईलुत तरकीन था, आप आला दर्जा के खैरो बरकत वाली बीबी थीं, उलूमे हदीस की आलिमा थीं, हदीस शरीफ को सुना और उस को बयान भी किया बग़दाद शरीफ में ही आप का विशाल हुआ, और बाबुल हरब में मदफ़ून हैं ।

आप की तअलीमो तरबियत

हज़रते सय्यदना अबू सालेह अब्दुल्लाह नस्र रदियल्लाहु अन्हु ने अपने वालिद गिरामी की निगरानी में नशो नुमा पाई और इन्हीं से तालीम मुकम्मल फ़रमाई, अपने वालिद माजिद के अलावा और भी बहुत से उल्माए वक़्त से इल्मे फ़िक़्ह, इल्मे हदीस हासिल किया, आप ने अपने चचा जान हज़रत शैख़ अब्दुल वहाब रदियल्लाहु अन्हु से भी हदीस, सुनी दरसे हदीस हासिल किया, हदीस शरीफ बयान की, और लिखवाई और दीगर उलूम का भी इक्तिसाबे फैज़ किया ।

आप के फ़ज़ाइल कमालात

शैख़े तरीकत, वाक़िफ़े असरारे हकीकत, परवरदाए सुह्बते गोसीयत, सुफीये कामिल, हज़रते सय्यदना अबू सालेह अब्दुल्लाह नस्र रदियल्लाहु अन्हु आप सिलसिलए आलिया क़ादिरिया रज़वीया के 19, उन्नीसवे इमाम व शैख़े तरीकत हैं, आप अला दर्जे के मुहक्किक, आरिफ हदीसे सिका, निहायत शीरीं कलाम, और खुश तबअ मतीन थे, फुरूई मसाइल में भी आप की मालूमात वसई थी, हाफ़िज़ इब्ने रजब हम्बली रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी किताब “तबकात” में बयान किया है के आप काज़ियुल कुज़्ज़ात, शैखुल वक़्त, मुनाज़िर, मुहद्दिस, आबिदो ज़ाहिद और बेहतरीन वाइज़ थे, और अपने जद्दे अमजद हज़रत सय्यदना शेख़ अब्दुल कादिर जिलानी रदियल्लाहु अन्हु के मदरसे के मतवल्ली थे, आप इंतिहाई फसीहो बलीग़ गुफ्तुगू फरमाते, आप की इंशा परदाज़ी और फतवा नवेसी में नुदरत होती थी, मदीनतुल इस्लाम की तीनो मस्जिदों में आप का नाम ख़ुत्बे में पढ़ा जाता था, आप अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुनकर के पैकर थे, आप उन लोगों में से थे जो कभी किसी से खौफ ज़दा नहीं हुए और इब्ने कसीर ने तो यहाँ तक लिखा है के आप बनू अब्बास में उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के मुमासिल मुशाबेह थे, सादिकुल कौल होने के साथ साथ उमूरे ममलिकत में इस्लाह की कोशिश बलीग़ फ़रमाई, रूई का लिबास पहिनते और मुकदमो पर गोरो खोज़ के बाद फैसला देते, अस्लाफ के नक़्शे कदम पर चलते और शिद्दत से हक़ पर काइम रहते ।

बद मज़हब से आप की बेज़ारी

आप शरीअत व तरीकत पर बड़ी मज़बूती के साथ क़ाइम रहते और ख़िलाफ़े शरा जिन उमूर को देखते उनको ख़त्म करने में तकलीफे शाक्का बर्दाश्त करते, मगर शरीअत से मुताजावुज़ न होने देते, चुनांचे एक वाक़िआ खुद ही बयान फरमाते हैं, के एक बार में वज़ीर अस्मि के मकान पर हुकूमत के नज़्मों नस्क के सिलसिले में कुछ तहरीर कर रहा था और वहां में मुहम्मद बिन मुंहब मुहद्दिस इब्ने ज़हीर मुसन्निफ़ और इब्ने मरूज़ी भी मौजूद थे, अचानक एक ज़ी वकार शख्स उम्दा लिबास पहने मकान में दाखिल हुआ और पूरी जमात को सलाम कर के उस की खिदमत में मसरूफ हो गई, में ने भी ये तसव्वुर कर के बहुत बड़ा फकीह है इन लोगों का इत्तिबा किया लेलिन जब में ने लोगों से इस के मुतअल्लिक़ मालूम किया तो उन्हों ने बताया के ये तो इब्ने करम यहूदी है जो टकसाल गवरनर है और दरबारे खिलाफत में इस का बड़ा अमल दखल है, जब वो लोगों के पास से गुज़र कर मेरे मुक़ाबिल चबूतरे पर बैठ गया तो में ने उससे कहा, इस जगह से खड़े हो जाओ हलाकत तेरा मुकद्दर हो, तो जब दाखिल हुआ तो में तुझे एक मुस्लमान फकीह समझ कर ताज़ीम के लिए खड़ा हो गया था हालांके फकीह होना तो दरकिनार तू मुस्लमान भी नहीं है, ये जुमला में ने उससे कई बार कहा, मेरे सामने से दफा हो जाओ ये सुन कर वो ख़ामोशी से चला गया, मेरा कुछ फज़ीफ़ा दरबारे खिलाफत से मुकर्रर था जिस को मक़ामे बदरिया पर जा कर वुसूल करता था मगर में इस मुकर्राह दिन को हज़रते इमाम अहमद इब्ने हंबल रदियल्लाहु अन्हु के मज़ार शरीफ पर फातिहा पढ़ने चला गया था, वापसी पर देखा के हर शख्स अपना वज़ीफ़ा तो इब्ने करम यहूदी के पास है वहां जाकर वुसूल कर लें! लेकिन में ने ये फैसला कर लिया के एक काफिर से अपना वज़ीफ़ा वुसूल करने हर गिज़ नहीं जाऊँगा फिर अल्लाह के भरोसे पर मुन्दर्जा ज़ैल अशआर पढता हुआ घर गया । ऐ नफ़्स! हमारे दीन का कोई बदल नहीं, तमाम झगड़ों से छुटकारा पाने के लिए दुनिया को छोड़, हमारी ये शान नहीं के हम मुशरिक के पास जाएं, क्यूंके ये इंतिहाई गलत काम है, हम अपने दीन पर कायम हैं, और हमारा खालिक हमारी तमाम हाजतें पूरी करता है, इस पर आप मज़बूती के साथ कायम रहे के ना तो आप इस यहूदी के पास जाते और न वो आप के पास रकम भेजता हत्ता के वो मलऊन खत्म कर दिया गया, उस वक़्त आप ने ख़ज़ाने से जा कर रकम वुसूल की ।

उहदाए क़ज़ा

बा तारीख 18, ज़ी कायदा 622, हिजरी को अज़्ज़ाहिर बा अमरुल्लाह की तरफ से आप “काज़ियुल कुज़्ज़ात” मुकर्रर हुए, और खलीफा मज़कूरा के इन्तिकाल तक आप “मंसबे क़ज़ा” पर फ़ाइज़ रहे, इस अज़ीम मनसब पर फ़ाइज़ होने के बावजूद आप के अख़लाक़ व आदात और आप की तवाज़ोह इंकिसारी में कुछ भी फर्क नहीं आया बल्कि साबिका दस्तूर के मुताबिक आप वैसे ही खलीक, तवाज़ोह, पसंद और करीमुन नफ़्स रहे, आप के इजलास में शहादतें कलम बंद करली जाया करती थीं, जब खलीफा ने आप को “काज़ियुल कुज़्ज़ात” बनाना चाहा तो आप ने फ़रमाया: में इस शर्त पर मंसबे क़ज़ा कुबूल करूंगा के में ज़वियुल अरहाम को भी वारिस बनाऊंगा? तो खलीफा ने कहा “बे शक तुम खुदा का ख़ौफ़ करना और उस के अलावा किसी का नहीं, और हर एक हकदार को उसका हक पहुँचाना, खलीफा ने आप को हुक्म दे दिया था के जिस किसी का हक शरई तौर पर साबित हो जाए आप उस का हक उसे फ़ौरन पंहुचा दें और ज़र्रा बराबर भी इस में वक्फा न करें, खलीफा ने आप के पास दस हज़ार दीनार सिर्फ इस गरज़ से रवाना किए थे के इस रुपए से जितने भी मुफ़लिस, कर्ज़दार, महबूस, हैं, इनका क़र्ज़ अदा कर के इन्हे रिहा कर दिया जाए और खलीफा मौसूफ़ ने आप ही को औकाफ आम्मा मसलन मदारिस, हनफ़िया, शाफिया, जामीउस सुल्तान, और जामिउल मतलब वगैरा का नाज़िरा निगरा मुकर्रर फ़रमाया, आप को इन औकाफ में हर तरह की तरमीम, व तनसीख़ और हर तरह की बहाली और बरतरफी का पूरा पूरा इख्तियार दिया गया था और मदरसा निज़ामिया में बहाली व बरतरफी भी आप ही के ज़िम्मे हो गई थी, आप आसारे सल्फ सालेहीन, के कदम बा कदम चलते और निहायत सरगर्मी व एहतिमाम से अपने मंसबे क़ज़ा को अंजाम देते रहे ।

आप की शाने क़ज़ा

आप के अहदे विलायत की ये ख़ुसूसीयत थी के आप के इजलास ही में अज़ान दी जाती थी और आप सब को शरीक नमाज़ कर के जमात से नमाज़ पढ़ाते थे, जुमा की नमाज़ के लिए जामा मस्जिद में पैदल तशरीफ़ ले जाया करते थे, यहाँ तक के खलीफा के इन्तिकाल के बाद उस के बेटे “मुस्तनसिर बिल्लाह” ने अपने इब्तिदाई अहदे खिलाफत से चार महा बाद 623, हिजरी में आप को मंसबे क़ज़ा से माज़ूल कर दिया गया उस वक़्त आप ने ये अशआर कहे: में मंसबे क़ज़ा से ख़ुदाए पाक का शुक्र अदा करता हूँ, जिस ने मुझे क़ज़ा के उहदे से रिहाई अता करदी, और में मुंतसिर का भी शुक्र गुज़ार हूँ और इस के लिए तमाम दुआ करने वालों से ज़ियादा दुआ करता हूँ,

दर्स व तदरीस

मअज़ूली के बाद आप ने अपने मदरसे में दर्स व इफ्ता का सिलसिला शुरू कर दिया और बड़ी बड़ी मजलिसे आप के यहाँ होने लगीं, बेशुमार लोगों ने आप से इल्मे फ़िक़्ह इल्मे हदीस सीखा, और फैज़ हासिल किया, आप तफ़क्कुह का ऐतिराफ़ करते हुए आप की तारीफ में ये शेर कहा: उस वक़्त फ़िक़ह में शैख़ अबू सालेह नस्र इमामे वक़्त हैं और वो हर एक मकसद के लिए मुईन व मदद गार हैं । फिर दोबारा मुस्तनसिर बिल्लाह ने आप को कलीसाए रूम का (जिस को उसने खानकाह में तब्दील कर दिया था) सदर बना दिया, वहां आप को बे हद takreem व ताज़ीम हासिल हुई, अवाम बहुत बड़ी रकमे आप की खिदमत में इस इख़्तियार के साथ रवाना करते के आप जहाँ चाहें इस रकम को खर्च कर सकते हैं, अगरचे खलीफा मुसंतनसिर बिल्लाह ने आप को मंसबे क़ज़ा से मअज़ूल कर दिया था, वो आप की ऐसी ही इज़्ज़त व वुक़अत करता था और अक्सर औकात वो आप की खिदमत में माल भेजा करता था के आप इससे नज़राने से अपने इख़राजात पूरे करें, मुअर्रिख़ीन का बयान है के ये खलीफा बेहतरीन सीरत का हामिल दियानत व इस्लाह, और अद्ल व इंसाफ में मुमताज़ था, वो ज़ुल्म के दफा और एहकामे शरीअत के निफाज़ के लिए हमेशा कोशिश करता रहता था, और इब्ने कसीर ने तो यहाँ तक लिखा है के ये बनू अब्बास में उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ के मुशाहेब था, सादिकुल कौल होने के साथ उमूरे ममलिकत में इस्लाह की कोशिश भी करता रहता था ।

तसानीफ़

अफ़सोस के आप इल्मी फ़िक़्ही व तहक़ीक़ी खिदमात की कोई तफ्सील मुअर्रिख़ीन ने नहीं लिखी सिर्फ एक किताब का पता लग सका है जिस का नाम “इर्शादुल मुबतद ईंन” है और ये किताब इल्मे फ़िक़्ह में अपनी नज़ीर आप है ।

आप के खुलफाए किराम

आप के खुलफाए किराम की नीज़ औलादे अम जाद की कोई भी तफ्सील क़ुतुब तारिख पेश करने से क़ासिर हैं सिर्फ, “हज़रत मुहीयुद्दीन अबू नस्र मुहम्मद रदियल्लाहु अन्हु” एक ज़िक्र मिलता है, अक्सर मुअर्रिख़ीन ने तहरीर फ़रमाया है के इन्हे आप ने अपनी खिलाफत व नियाबत से नवाज़ा है ।

विसाल व उर्स

आप का विसाल 27, रजाबुल मुरज्जब 632, हिजरी को हुआ, बाज़ लोगों ने 6, शव्वालुल मुकर्रम 13, 16, शव्वालुल मुकर्रम 633, हिजरी लिखा है, आप ने सत्तर साल की उमर में सुबह सादिक के वक़्त विसाल फ़रमाया । “इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलईही राजिऊन”

मज़ार मुबारक

आप का मज़ार मुबारक बगदाद शरीफ में हज़रते इमाम अहमद इब्ने हंबल रहमतुल्लाह अलैह के रोज़े में मरजए खलाइक है ।
“अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की उन पर बेशुमार रहमत हो और उन के सदके में हमारी मगफिरत हो”

रेफरेन्स हवाला
  • तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
  • शजरतुल कामिलीन

Share this post