हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी (Part- 6)

हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़िन्दगी (Part- 6)

अंसार व मुहाजिर भाई-भाई

हज़राते मुहाजिरीन चूँकि इंतिहाई बे सरो सामानी की हालत में बिलकुल खाली हाथ अपने अहलो अयाल को छोड़ कर मदीने आए थे इस लिए परदेस में मुफलिसी के साथ वहशत व बेगानगी और अपने अहले अयाल की जुदाई का सदमा महसूस करते थे इस में शक नहीं की अंसार ने इन मुहाजिरीन की मेहमान नवाज़ी और दिलजोई में कोई कसर नहीं उठा रखी लेकिन मुहाजिरीन देर तक दूसरो के सहारे जिंदगी बसर करना पसंद नहीं करते थे क्यों की वोह लोग हमेशा से अपने दस्तो बाज़ू की कमाई खाने के ख़ूगर थे इस लिए ज़रूरत थी की मुहाजिरीन की परेशानी को दूर करने और इन के लिए मुस्तक़िल ज़रिए मआश मुहय्या करने के लिए कोई इंतिज़ाम किया जाए इस लिए हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ख्याल फ़रमाया की अन्सार व मुहाजिरीन में रिश्ताए उख़ुव्वत भाईचारा क़ाइम कर के इन को भाई भाई बना दिया जाए ताकि मुहाजिरीन के दिलो से अपनी तन्हाई और बे कसी का अहसास दूर हो जाए और एक दुसरो के मददगार बन जाने से मुहाजिरीन के ज़रिए मआश का मसला भी हल हो जाए | 

चुनांचे मस्जिदे नबवी की तामीर के बाद एक दिन हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रते अनस बिन मालिक रदियल्लाहु अन्हु के मकान में अंसार व् मुहाजिरीन को जमा फ़रमाया इस वक़त तक मुहाजिरीन की तादाद पैंतालीस या पचास थी हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अंसार को मुख़ातब कर के फ़रमाया की यह मुहाजिरीन तुम्हारे भाई हैं फिर मुहाजिरीन व् अंसार में से दो दो शख्स को बुला कर फरमाते गए की यह और तुम भाई भाई हो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इरशाद फरमाते ही यह रिश्ते उख़ुव्वत बिलकुल हक़ीक़ी भाई जैसा रिश्ता बन गया चुनांचे अंसार ने मुहाजिरीन को साथ ले जा कर अपने घर की एक एक चीज़ सामने ला कर रख दी और कह दिया की आप हमारे भाई है इस लिए इन सब सामानो में आधा आप का आधा हमारा हे |

हद हो गई की हज़रते साद बिन राबिआ अंसारी जो हज़रते अब्दुल रहमान बिन औफ मुहाजिर के भाई करार पाय थे इन की दो बीवियां थीं हज़रते साद बिन राबिआ अंसारी रदियल्लाहु अन्हु से कहा की मेरी एक बीवी जिसे आप पसंद करे में उसे तलाक़ दे दूँ और आप उस से निकाह कर ले अल्लाहु अकबर इस में शक की अंसार का यह इसार एक ऐसा बे मिसाल शाहकार हैं की अक़वामे आलम की तारीख में इस की मिसाल मुश्किल से ही मिलेगी मगर मुहाजिरीन ने क्या तर्ज़े अमल इख़्तियार किया यह भी एक काबिले तक़लीद तारीखी कारनामा हैं |

हज़रते साद बिन राबिआ अंसारी रदियल्लाहु अन्हु की इस मुखलिसाना पेश कश को सुन कर हज़रते अब्दुर रहमान बिन औफ रदियल्लाहु अन्हु ने शुक्रिया के साथ यह कहा की अल्लाह तआला यह सब मालो मता और अहलो अयाल आप को मुबारक़ फरमाए  मुझे तो आप सिर्फ बाज़ार का रास्ता बता दीजिए उन्हों ने मदीने के मशहूर बाज़ार “कैनुकाआ”  का रास्ता बता दिया हज़रते अब्दुर  रहमान बिन औफ रदियल्लाहु अन्हु बाज़ार गए और कुछ घी कुछ पनीर खरीद कर शाम तक बेचते रहे इसी तरह रोज़ाना वोह बाज़ार जाते रहे और थोड़े ही अर्से में वोह काफी मालदार हो गए और उन के पास इतना सरमाया जमा हो गया की उन्हों ने शादी कर के अपना घर बसा लिया जब यह बारगाहे रिसालत में हाज़िर हुए तो हुज़ुर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दरयाफ्त फ़रमाया की तुम ने बीवी को कितना महर दिया अर्ज़ किया पांच दिरहम बराबर सोना इरशाद फ़रमाया की अल्लाह तआला तुम्हे बरक़ते अता फ़रमाया तुम दावते वलीमा करो अगरचे एक बकरी ही हो |

और रफ्ता रफ्ता हज़रते अब्दुर रहमान बिन औफ रदियल्लाहु अन्हु की तिजारत में इतनी खेरो बरकत और तरक्की हुई की खुद इनका कौल है में मिटटी को छू देता हूँ तो सोना बन जाती है मनकूल है की इन का सामाने तिजारत सात सो ऊंटों पे लद कर आता था और जिस दिन मदीने में इन का तिजारती सामान पहुँचता था तो तमाम शहर में धूम मच जाती थी | हज़रते अब्दुर रहमान बिन औफ रदियल्लाहु अन्हु की तरह दूसरे मुहाजिरीन ने भी दुकाने खोल दीं | हज़रते अबू बकर सिद्दीक रदियल्लाहु अन्हु कपडे की तिजारत करते थे | हज़रते उस्माने गनी रदियल्लाहु अन्हु “कैनुकाआ” के बाज़ार में खजूरों की तिजारत करने लगे | हज़रते उमर फरूके आज़म रदियल्लाहु अन्हु भी तिजारत में मशगूल हो गए थे | दूसरे मुहाजिरीन ने भी छोटी बड़ी तिजारत शुरू कर दी | गरज़ बा वुजूदे मुहाजिरीन के लिए अंसार का घर मुस्तकिल मेहमान खाना था मगर मुहाजिरीन ज़्यादा दिनों तक अंसार पर बोझ नहीं बने बल्कि अपनी मेहनत और बे पनाह कोशिशों से बहुत जल्द अपने पाऊं पर खड़े हो गए |

हज़रते सलमान फ़ारसी मुसलमान हो गए

सं. हिजरी के वाक़िआत में हज़रते सलमान फ़ारसी रदियल्लाहु अन्हु के इस्लाम लाने का वाक़िआ भी बहुत अहम है | ये फारस के रहने वाले थे इन के आबाओ अजदाद बल्कि इन के मुल्क की पूरी आबादी मजूसी (आतिश परस्त) थी ये अपने आबाई दीन से बेज़ार हो कर दीने हक की तलाश में अपने वतन से निकले मगर डाकूओ ने इन को पकड़ कर अपना गुलाम बना लिया फिर इन को बेच दिया | चुनांचे ये कई बार बिकते रहे मुख्तलिफ लोगों की गुलामी में रहे इसी तरह ये मदीना शरीफ पहुंचे, कुछ दिनों तक ईसाई बन कर रहे और यहूदियों से भी मेलजोल रखते रहे | इस तरह इन को तौरेत व इंजील की काफी मालूमात हासिल हो चुकी थी ये हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह में हाज़िर हुए तो पहले दिन ताज़ा खजूरों का एक तबाक खिदमते अक़दस में ये कह कर पेश किया की ये “सदक़ा” है | हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया के इस को हमारे सामने से उठा कर फ़क़ीरों मिस्कीनों को दे दो कियूं की में सदक़ा नहीं खाता | फिर दूसरे दिन खजूरों का ख्वान ले कर पहुंचे और ये कह कर की ये “हदीय्या” है सामने रख दिया तो हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा को हाथ बढ़ाने का इशारा फ़रमाया और खुद भी खा लिया | इस दरमियान में हज़रते सलमान फ़ारसी रदियल्लाहु अन्हु ने हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दोनों शानो के बीच जो नज़र डाली तो “मुहरे नुबूवत” को देख लिया चूँकि ये तौरेत व इंजील में नबी आखरूज़ ज़म की निशानियां पढ़ चुके थे इस लिए फौरन ही इस्लाम कबूल कर लिया |   

नमाज़ों की रकआत में इज़ाफ़ा

अब तक फ़र्ज़ नमाज़ों में सिर्फ दो ही रकअते थीं मगर हिजरत के साले अव्वल ही में जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीना तशरीफ़ लाए तो ज़ोहर व असर इशा में चार चार रकअते फ़र्ज़ हो गईं लेकिन सफर की हालत में अब भी वो ही दो रकअते कायम रहीं इसी को सफर की हालत में नमाज़ो में “कसर” कहते हैं |

यहूदियों से मुआहिदा

मदीने में अंसार के अलावा बहुत से यहूदी भी आबाद थे | उन यहूदियों के तीन कबीले बनू कैनुक़ाअ. बनू नज़ीर, क़ुरैज़ा मदीने के अतराफ़ में आबाद थे और निहायत मज़बूत महल्लात और किले बना कर रहते थे हिजरत से पहले यहूदियों और अंसार में हमेशा इख्तिलाफ रहता था और वो इख्तिलाफ अब भी मौजूद था और अंसार के दोनों कबीले ओस व ख़ज़रज बहुत कमज़ोर हो चुके थे | क्यूंकी मशहूर लड़ाई “जंगे बआस” में इन दोनों कबीलों के बड़े बड़े सरदार और नामवर बहादुर आपस में लड़ लड़ कर क़त्ल हो चुके थे और यहूदी इस किस्म की तदबीरों और शरारतों में लगे रहते थे की अंसार के ये दोनों कबाइल हमेशा टकराते रहते और कभी भी मुत्तहिद न होने पाए | इन वुजूहात की बिना पे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यहूदी और मुसलमानो के आइंदा तअल्लुक़ात के बारे में एक मुआहिदे की ज़रूरत महसूस फ़रमाई ताकि दोनों फ़रीक़ अम्नो सुकून के साथ रहें और आपस में कोई लड़ाई न हो | चुनांचे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अंसार और यहूद को बुला कर मुआहिदे की एक दस्तावेज़ लिखवाई जिस पे दोनों फ़रीक़ों के दस्तखत हो गए |

इस मुआहिदे की दफ़आत का खुलासा हस्बे ज़ेल है:

  • खून बहा (जान के बदले जो माल दिया जाता है) और फ़िदया कैदी को छोड़ने के बदले जो रकम दी जाती है का जो तरीका पहले से चला आता था अब भी वो कायम रहेगा  |
  • यहूदियों को मज़हबी आज़ादी हासिल रहेगी इन के मज़हबी रसूम में कोई दखल अंदाज़ी नहीं की जाएगी | 
  • यहूदी और मुसलमान बाहम दोस्ताना बर्ताव रखेंगें | 
  • यहूदी या मुसलमान को किसी से लड़ाई पेश आएगी तो एक फ़रीक़ दूसरे की मदद करेगा |
  • अगर मदीने पे कोई हमला होगा तो दोनों फ़रीक़ मिल कर हमला आवर का मुकाबला करेंगें |
  • कोई फ़रीक़ कुरेश और इन के मदद गारों को पनाह नहीं देगा |
  • किसी दुश्मन से अगर एक फरीक सुलाह करेगा तो दुसरा फरीक भी उस मुसालहत में शामिल होगा लेकिन मज़हबी लड़ाई इससे अलग रहेगी |

    “हिजरत का दूसरा साल सं . 2, हिजरी”

क़िब्ले की तबदीली

जब तक हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्के में रहे खानए काबा की तरफ मुँह कर के नमाज़ पढ़ते रहे मगर हिजरत के बाद जब आप मदीना शरीफ तशरीफ़ लाए तो अल्लाह पाक का ये हुक्म हुआ की आप अपनी नमाज़ों में “बैतुल मुक़द्दस” को अपना क़िबला बनाएं | चुनांचे 16, या 17, सोलाह या सत्तरा महीने तक बैतुल मुक़द्दस की तरफ मुँह कर के नमाज़ पढ़ते रहे मगर आप के दिल की तमन्ना ये थी काबा ही को क़िबला बनाया जाए | चूँकि आप अक्सर आसमान की तरफ चेहरा उठा उठा कर इस के लिए वहीये इलाही का इन्तिज़ार फरमाते रहे यहाँ तक की एक दिन अल्लाह पाक ने अपने हबीब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की कलबी आरज़ू पूरी फरमाने के लिए क़ुरआन शरीफ की सूरह बकरा आयात 144, नाज़िल फ़रमादि की

तर्जुमा कंज़ुल ईमान:- हम देख रहे हैं बार बार आप का आसमान की तरफ मुँह करना तो हम ज़रूर आप को फेर देंगें उस क़िब्ले की तरफ जिस में आप की ख़ुशी है तो अभी आप फेर दीजिए |

चुनांचे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम कबीलए बनी सलमाह की मस्जिद में नमाज़े ज़ोहर पढ़ रहे थे की हालते नमाज़ ही में ये वही नाज़िल हुई और नमाज़ ही में आप ने बैतुल मुक़द्दस से मुड़ कर काबे की तरफ अपना चेहरा कर लिया और तमाम मुक़्तदीयों ने भी आप की पैरवी की | इस मस्जिद को जहाँ ये वाक़िआ पेश आया “मस्जिदुल किबलातेंन” कहते हैं और आज भी ये तारीखी मस्जिद ज़ियारत गाहे खासो आम है जो शहर मदीना से तकरीबन दो किलो मीटर दूर शिलाम मगरिब में मौजूद है |

इस क़िबला बदलने को “तहवीले क़िबला” कहते हैं तहवीले क़िबला से यहूदियों को बड़ी सख्त तकलीफ पहुंची जब तक हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम बैतुल मुक़ददस की तरफ मुँह कर के नमाज़ पढ़ते रहे तो यहूदी बहुत खुश थे और फख्र के साथ कहते थे की मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम भी हमारे ही क़िब्ले की तरफ रुख कर के इबादत करते हैं मगर जब क़िबला बदल गया तो यहूदी इस क़द्र बरहम और नाराज़ हो गए की वो ये ताना देने लगे की मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम चूँकि हर बात में हम लोगों की मुखालिफत करते हैं इस लिए इन होने सिर्फ हमारी मुखालिफत में क़िबला बदल दिया है | इसी तरह मुनाफिक़ीन का गिरोह भी तरह तरह की नुक्ता चीनी और किस्म किस्म के ऐतिराज़ात करने लगे तो इन दोनों गिरोह की ज़बान बंदी दहन दोज़ी के लिए अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने कुरआन शरीफ में पारा दो सूरह बकरा आयत 142, 143, नाज़िल फ़रमाई: 

तर्जुमा कंज़ुल ईमान:- अब कहेंगें बे वक़ूफ़ लोगों में से किस ने फेर दिया मुसलमानो को इन को उस क़िब्ले से जिस पर वो थे आप कह दीजिए की पूरब पच्छिम सब अल्लाह ही का है वो जिसे चाहे सीधी राह चलाता है और ऐ (महबूब)  आप पहले जिस क़िबला पर थे हमने वो इसी लिए मुकर्रर किया था की देखें कौन रसूल की पैरवी करता है और कौन उलटे पाऊ फिर जाता है और बिला शुबाह ये बड़ी भारी बात थी मगर जिन को अल्लाह पाक ने हिदायत दे दी है (उन के लिए कोई बड़ी बात नहीं) |

पहली आयत में यहूदियों के ऐतिराज़ का जवाब दिया गया की खुदा की इबादत में क़िब्ले की कोई ख़ास जिहत ज़रूरी नहीं है | उस की इबादत के लिए पूरब, पच्छिम, उत्तर, दख्खिन, सब जिहतें बराबर हैं अल्लाह पाक जिस जिहत को चाहे अपने बंदों के लिए क़िबला मुकर्रर फ़रमा दे लिहाज़ा इस पर किसी को ऐतिराज़ का कोई हक नहीं है | 

दूसरी आयत में मुनाफिक़ीन की ज़बान बंद की गई है जो तहवील क़िबला के बाद हर तरफ ये पिरोपैगंडा करने लगे थे की पैग़म्बरे इस्लाम तो अपने दीन के बारे में खुद ही मुतरद्दिद हैं कभी बैतुल मुकद्द्स को क़िबला मानते हैं कभी कहते हैं की काबा क़िबला है | आयत में तहवीले क़िबला की हिकमत बता दी गई मुनाफिक़ीन जो महिज़ नुमाइशी मुसलमान बन कर नमाज़ें पढ़ा करते थे वो क़िब्ले के बदलते ही बदल गए और इस्लाम से मुन्हरिफ़ (फिर जान) हो गए | इस तरह ज़ाहिर हो गया की कौन सादिकुल इस्लाम है और कौन मुनाफिक और कौन रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैरवी करने वाला है और कौन दींन से फिर जाने वाला | (आम क़ुत्बे तफ़्सीर व सीरत)

लड़ाइयों का सिलसिला ये जंगे क्यूं हुईं?

 अब तक हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को खुदा की तरफ से सिर्फ ये हुक्म था की दलाइल और वाइज़े हसना से लोगों को इस्लाम की दावत देते रहें और मुसलमानो को कुफ्फार की तकलीफों पर सब्र का हुकम था इसी लिए काफिरों ने मुसलमानो पर बड़े बड़े ज़ुल्मो सितम के पहाड़ तोड़े, मगर मुसलमानो ने इंतिकाम के लिए कभी हथियार नहीं उठाया बल्कि हमेशा सब्रो तहम्मुल के साथ कुफ्फार की तकलीफों को बर्दाश्त करते रहे लेकिन हिजरत के बाद सारा अरब और यहूदी इन मुठ्ठी भर मुसलमानो के जानी दुश्मन हो गए और इन मुसलमानो को फना की घाट उतार देने का इरादा कर लिया तो अल्लाह पाक ने मुसलमानो को इजाज़त दे दी की जो लोग तुम से जंग की इब्तिदा करें उन से तुम भी लड़ सकते हो |

चुनांचे 12, सफर 2, हिजरी तारीखे इस्लाम में वो यादगार दिन है जिस में अल्लाह पाक ने मुसलमानो को कुफ्फार के मुकाबले में तलवार उठाने की इजाज़त दी और ये आयत कुरआन शरीफ में नाज़िल फ़रमाई पारा सत्तरा 17, सूरह हज्ज आयत 29, :

तर्जुमा कंज़ुल ईमान:- जिन से लड़ाई की जाती है (मुसलमान) उन को भी अब लड़ने की इजाज़त दी जाती है क्यों की वो मुसलमान मज़लूम हैं और खुदा उन की मदद पर यक़ीनन कादिर है |हज़रते इमाम मुहम्मद बिन शिहाब ज़ोहरी रदियल्लाहु अन्हु का क़ौल है की जिहाद की इजाज़त के बारे में ये वो आयत है जो सब से पहले नाज़िल हुई मगर तफ़्सीरे इब्ने जरीर में है की जिहाद के बारे में सब से पहले जो आयत उत्तरी वो ये है: 

तर्जुमा कंज़ुल ईमान:- खुदा की राह में उन लोगों से लड़ो जो तुम लोगों से लड़ते हैं |

बहरे हाल सं. 2, हिजरी में मुसलमानो को अल्लाह पाक ने कुफ्फार से लड़ने की इजाज़त दे दी मगर इब्तिदा में ये इजाज़त मशरूत थी यानि सिर्फ उन ही काफिरों से जंग कर ने की इजाज़त थी जो मुसलमानो पे हमला करें | मुसलमानो को अभी तक इस की इजाज़त नहीं मिली थी की वो जंग में अपनी तरफ से पहिल करें लेकिन हक वाज़ेह हो जाने और बातिल ज़ाहिर हो जाने के बाद चूँकि तब्लिगे हक और अहकामे इलाही की नशरो इशाअत हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर फ़र्ज़ थी इस लिए तमाम उन कुफ्फार से जो दुश्मनी के तौर पे हक को कबूल करने से इंकार करते थे जिहाद का हुक्म नाज़िल हो गया ख़्वाह वो मुस्लमान से लड़ने में पहिल करें या न करें क्यों की हक के ज़ाहिर हो जाने के बाद हक को कबूल करने के लिए मजबूर करना और बातिल को जबरन छुड़ाना ये ऐन हिकमत और बनी नोए इंसान की सलाहों फलाह के लिए इंतिहाई ज़रूरी था | बहरे हाल इस में कोई शक नहीं की हिजरत के बाद जितनी लड़ाइयां भी हुईं अगर पूरे माहौल को पूरी निगाह से बा गौर देखा जाए तो ये ज़ाहिर होता है की ये सब लड़ाइयां कुफ्फार की तफर से मुसलमानो के सर पर मुसल्लत की गईं और गरीब मुसलमान मजबूरी की वजह से तलवार उठाने पर मजबूर हुए | मसलन मुन्दर्जा ज़ैल चंद वाक़िआत पर ज़रा तन्क़ीदी निगाह से नज़र डालिए |

1,) हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और आप के सहाबा अपना सब कुछ मक्का शरीफ में छोड़ कर इंतिहाई बे कसी के आलम में मदीने चले आए थे चाहिए तो ये था की कुफ्फारे मक्का अब सुकून से बैठे रहते की उन के दुशमन यानि रहमते आलम हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और मुस्लमान उन के शहर से निकल गए मगर हुआ ये की इन काफिरों के ग़ैज़ो गज़ब का पारा इतना चढ़ गया की अब ये लोग अहले मदीना के भी जान के दुश्मन बन गए | चुनांचे हिजरत के चंद दिन बाद कुफ्फारे मक्का ने रईसे अंसार “अब्दुल्लाह बिन उबय्य” के पास धमकी से भरा हुआ एक खत भेजा  “अब्दुल्लाह बिन उबय्य” वो शख्स है की वाकिअए हिजरत से पहले तमाम मदीने वालों ने इस को अपना बादशाह मान कर इस की ताज पोषी की तय्यारी कर ली थी मगर हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के मदीना तशरीफ़ लाने के बाद ये इस्कीम खत्म हो गई | चुनांचे इसी गम व गुस्से में अब्दुल्लाह बिन उबय्य उम्र भर मुनाफिकों का सरदार बनकर इस्लाम की बीख कुनी करता रहा और इस्लाम व मुसलमानो के खिलाफ तरह तरह की साज़िशों में लगा रहा |

बहर कैफ कुफ्फारे मक्का ने इस दुश्मन इस्लाम के नाम जो खत लिखा उस का मज़मून ये है की तुम हमारे आदमी मुहम्मद  सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के अपने यहाँ पनाह दे रखी है की या तो तुम लोग उन के क़त्ल कर दो या मदीने से निकाल दो वरना हम सब लोग तुम पर हमला कर देंगें और तुम्हारे तमाम लड़ने वाले जवानो के क़त्ल कर के तुम्हारी औरतों पर तसर्रुफ़ करेंगें | 

जब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के कुफ्फारे मक्का के इस तहदीद आमेज़ और खौफनाक खत की खबर मालूम हुई तो आप ने अब्दुल्लाह बिन उबय्य से मुलाकात फ़रमाई और इरशाद फ़रमाया की “क्या तुम अपने भाइयों के और बेटों के क़त्ल करोगे ” चूँकि अक्सर अंसार दामने इस्लाम में आ चुके थे इस लिए अब्दुल्लाह बिन उबय्यने इस नुक्ते के समझ लिया और कुफ्फारे मक्का के हुक्म पर अमल नहीं कर सका   

2, )ठीक उसी ज़माने में हज़रते साद बिन मुआज़ रदियल्लाहु अन्हु जो क़बीलए ओस के सरदार थे उमराह अदा करने के लिए मदीने से मक्का गए और पुराने तअल्लुक़ात की बिना पर “उमय्या बिन खल्फ” के मकान पे ठहरे | तो इत्तिफ़ाक़ से अबू जाहिल सामने आ गया और डांट कर कहा की ऐ उमय्या ! ये तुम्हारे साथ कौन है? उमय्या ने कहा की ये मदीने के रहने वाले “साद बिन मुआज़” हैं ये सुन कर अबू जाहिल ने तड़प कर कहा की तुम लोगों ने बे धर्मों (मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और असहाब को अपने यहाँ पनाह दी है | खुदा की कसम अगर तुम उमय्या के साथ में न होते तो बच कर वापस नहीं जा सकते थे | हज़रते साद बिन मुआज़ रदियल्लाहु अन्हु ने भी इंतिहाई जुरअत और बहादुरी के साथ ये जवाब दिया की अगर तुम लोगों ने हम को काबे की ज़्यारत से रोका तो हम तुम्हारी शाम की तिजारत का रास्ता रोक देंगें |

3, )कुफ्फारे मक्का ने सिर्फ इन्हें धमकियों पर बस नहीं किया बल्कि वो मदीने पर हमले की तैयारियां करने लगे और हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और मुसलमानो के क़त्ले आम का मंसूबा बनाने लगे | चुनांचे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रातों को जाग जाग कर बसर करते थे और सहाबए किराम रदियल्लाहु अन्हुम आप का पहरा दिया करते थे कुफ्फारे मक्का ने सारे अरब पर असरो रुसूख़ की की वजह से तमाम क़बाइल में ये आग भड़का दी थी की मदीने पे हमला कर के मुसलमानो को दुनिया से नेस्तो नाबूद करना ज़रूरी है |

ऊपर जो अभी हमने तीन वुजूहात बयान की हैं इन के पढ़ कर हर अक्ल मंद को ये कहना ही पड़ेगा की इन हालात में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को हिफ़ाज़ते खुद इख़्तियारी के लिए कुछ न कुछ तदबीर करनी ज़रूरी ही थी ताकि अंसार व मुहाजिरीन और खुद अपनी ज़िन्दगी की बका और सलामती का सामना हो जाए |

चुनांचे कुफ्फारे मक्का के खतरनाक इरादों का इल्म हो जाने के बाद हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपनी और सहाबा की हिफ़ाज़ते खुद इख़्तियारी के लिए दो तदबीरों पर अमल दर आमद का फैसला फ़रमाया |

अव्वल : ये की कुफ्फारे मक्का की शामी तिजारत जिस पर इन की ज़िन्दगी का दारोमदार है इस में रुकावट डाल दी जाए ताकि वो मदीने पर हमले का ख्याल छोड़ दें और सलाह पर मजबूर हो जाएं |

दूसरी : ये की मदीने की चारों तरफ जो कबीले अब्द हैं उन में से अम्नो अमान का मुआहिदा हो जाए ताकि कुफ्फारे मक्का मदीने पर हमले की नियत न करें | चुनांचे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इन्ही दो तदबीरों के पेशे नज़र सहाबए किराम के छोटे छोटे लश्करों को मदीने के अतराफ़ में भेजना शुरू कर दिया और कुछ लश्करों के साथ खुद भी तशरीफ़ ले गए | सहाबए किराम रदियल्लाहु अन्हुम के ये छोटे छोटे लश्कर कभी कुफ्फारे मक्का की नकलो हरकत का पता लगाने के लिए जाते थे और कहीं कुछ कबीलों में मुआहिदा अम्नो अमान करने के लिए रवाना होते थे कहीं इस मकसद से भी जाते थे की कुफ्फारे मक्का की शमी तिजारत का रास्ता बंद हो जाए इसी सिलसिले में कुफ्फारे मक्का और उन के हलीफो से मुसलमानो का टकराओ शुरू हुआ और छोटी बड़ी लड़ाइयों का सिलसिला शुरू हो गया | इन्ही लड़ाइयों को तारीखे इस्लाम में “गज़्वात व सराया” के नाम से बयान किया गया है |

गज़्वात और सरिय्या किसे कहते हैं?

यहाँ मुसन्निफीन सीरत की ये इस्लाह याद रखनी ज़रूरी है के वो जंगगी लश्कर जिस के साथ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम भी तशरीफ़ ले गए उस को “गज़वा” कहते हैं और वो लश्करों की टोलियां टीम जिन में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम शामिल नहीं हुए उन को “सरिय्या” कहते हैं | (मुदारिजुन नुबूवत जिल्द दो)   “गज़्वात” यानि जिन जिन लश्करों में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम शरीक हुए उन की तादाद में मुअर्रिख़ीन का इख्तिलाफ है | “मवाहिबे लदुन्निय्या” में है की “गज़्वात” की तादाद “सत्ताईस” 27, है और “रौज़तुल अहबाब” में ये लिखा है की “गज़्वात” की तादाद एक कौल की बिना पर “इक्कीस” 21, और कुछ के नज़दीक “चौबीस” 24, है और बाज़ ने कहा की “पच्चीस” 25, और बाज़ ने छबीस 26, लिखा है |

मगर हज़रते इमाम बुखारी ने हज़रते ज़ैद बिन अरक़म सहाबी रदियल्लाहु अन्हु से जो रिवायत तहरीर की है उस में गज़्वात की कुल तादाद “उन्नीस” 19, बताई गई है और इन में से जिन गज़्वात में जंग भी हुई वो ये हैं :

1, जंगे बद्र 2, जंगे उहद 3, जंगे अहज़ाब 4, जंगे बनू क़ुरैज़ा 5, जंगे बनू अल मुस्तालिक 6, जंगे खैबर 7, फ़तेह मक्का 8, जंगे हुनैन 9, जंगे ताइफ़ |”सराया” जिन लश्करों के साथ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तशरीफ़ नहीं ले गए उन की तादाद (गिनती) बाज़ मुअर्रिख़ीन के नज़दीक “सैंतालीस” 47, और कुछ के नज़दीक “छपन्न 56” हैं |इमाम बुखारी ने मुहम्मद बिन इस्हाक़ से रिवायत किया है की सब से पहला गज़वा “अबवा” और सब से आखरी गज़वा “तबूक” और सब से पहला “सरिय्या” जो मदीने से जंग के लिए रवाना हुआ वो “सरिय्याए हम्ज़ा” है

गज़्वात व सराया

हिजरत के बाद का तकरीबन कुल ज़माना “गज़्वात व सराया” के एहतिमाम व इंतिज़ाम में गुज़रा इस लिए की अगर गज़्वात की काम से काम तादाद जो रिवायत में आई हैं यानि “उन्नीस” और “सराया” की कम से कम गिनती जो रिवायतों में हैं यानि “सैंतालीस” शुमार कर ली जाएं तो 9, साल में हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को छोटी बड़ी “छियासठ” 66, जंगों लड़ाइयों का सामना करना पड़ा |

सरियाए हम्ज़ा

हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हिजरत के बाद जब जिहाद की आयात नाज़िल हो गई तो सब से पहले जो एक छोटा सा लश्कर कुफ्फार के मुकाबले के लिए रवाना फ़रमाया उस का नाम “सरियाए हम्ज़ा” है  हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि  वसल्लम ने अपने चचा हज़रते हम्ज़ा बिन अब्दुल मुत्तलिब रदियल्लाहु अन्हु को एक सफ़ेद झंडा अता फ़रमाया और उस झंडे के नीचे सिर्फ 30, मुहाजिरीन को एक लश्कर कुफ्फार के मुकाबले के लिए भेजा जो तीन सौ की तादाद में थे और अबू जाहिल उन का सिपह सालार था हज़रते हम्ज़ा रदियल्लाहु अन्हु “सैफुल बहर” तल पहुंचे और दोनों तरफ से जंग के लिए साफ बंदी भी हो गई लेकिन एक शख्स मजहि बिन अम्र जुहन्नी ने जो दोनों फरीक का हलीफ़ था बीच में पढ़ कर लड़ाई मोकूफ करा दी |  

सरियाए उबैदा बिन अल हारिस

इसी साल साठ या अस्सी मुहाजिरीन के साथ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रते उबैदा बिन अल हारिस रदियल्लाहु अन्हु को सफ़ेद झंडे के साथ अमीर बना कर “रागिब” की तरफ रवाना फरमाया इस सरीये के अलम बरदार हज़रते मुस्तह बिन असासा रदियल्लाहु अन्हु थे | जब ये लश्कर “सनियाए मुर्राह” के मकाम पर पंहुचा तो अबू सुफियान और अबू जाहिल के लड़के इकरिमा की कमान में दो सौ कुफ्फारे कुरेश जमा थे दोनों लश्करों का सामना हुआ हज़रते साद बिन अबी वक़्क़ास रदियल्लाहु अन्हु ने कुफ्फार पर तीर फेंका ये सब से पहला तीर था जो मुसलमानो की तरफ से कुफ्फारे मक्का पे चलाया गया हज़रते साद बिन अबी वक़्क़ास रदियल्लाहु अन्हु ने कुल आठ तीर फेंके और हर तीर निशाने पे ठीक बैठा कुफ्फार इन तीरों की मार से घबरा कर फरार हो गए इस लिए कोई जंग नहीं हुई |

ग़ज़वए बावत

हिजरत के तेरवें महीने सं. 2, हिजरी में मदीने पर हज़रते साद बिन मुआज़ रदियल्लाहु अन्हु को हाकिम बना कर दो सो मुहाजिरीन को साथ ले कर हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जिहाद की नियत से रवाना हुए इस ग़ज़वे का झंडा भी सफ़ेद था और अलम बरदार हज़रते साद बिन अबी वक़्क़ास रदियल्लाहु अन्हु थे इस ग़ज़वे का मकसद कुफ्फारे मक्का के एक तिजारती काफिले का रास्ता रोकना था इस काफिले का सरदार “उमय्या बिन खलफ जमहि” था और उस काफिले में एक सौ कुरेशी कुफ्फार और ढाई हज़ार ऊँट थे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उस काफिले की तलाश में मक़ामे “बावत” तक तशरीफ़ ले गए मगर कुफ्फारे कुरेश का कहीं सामना नहीं हुआ |

ग़ज़वए सफ़वान

इसी साल “कुर्ज़ बिन जाबिर फिहरि” ने मदीने की चरागाह में डाका डाला और कुछ ऊंटों को हाँक कर ले गया हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रते ज़ैद बिन हारिस रदियल्लाहु अन्हु को मदीना अपना खलीफा बना कर और हज़रते अली रदियल्लाहु अन्हु को अलम बरदार बना कर सहाबा की एक जमात के साथ वादिए सफ़वान तक डाकू का पीछा किया मगर वो इस क़दर तेज़ी के साथ भगा की हाथ नहीं आया और हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मदीने वापस तशरीफ़ लाए वादिए सफ़वान “बद्र” के करीब है इसी लिए कुछ मुअररुखिन ने इस ग़ज़वे का नाम “ग़ज़वए बदरे ऊला रखा है | इस लिए ये याद रखना चाहिए की ग़ज़वए सफ़वान और ग़ज़वए बदरे ऊला दोनों एक ही ग़ज़वे के दो नाम हैं |  

रेफरेन्स (हवाला)

शरह ज़ुरकानि मवाहिबे लदुन्निया जिल्द 1,2, बुखारी जिल्द 2, सीरते मुस्तफा, सीरते इब्ने हिशाम जलिद 1, सीरते रसूले अकरम, तज़किरे मशाइख़े क़ादिरया बरकातिया रज़विया, गुलदस्ताए सीरतुन नबी, सीरते रसूले अरबी, मुदारिजुन नुबूवत जिल्द 1,

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