कर अता अहमद रज़ाए अहमदे मुरसल मुझे
मेरे मौलाना हज़रते अहमद रज़ा के वास्ते
"मामूलाते आला हज़रत"
खुतूत (लेटर) का जवाब ज़रूर देते
“हयाते आला हज़रत” में है के आला आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! को खुतूत के जवाब का बहुत एहतिमाम था, इसी ख्याल से के खुतूत ज़ाये न हों आप के खादिमें खास हाजी किफ़ायतुल्लाह साहब ने एक खूबसूरत लेटर बॉक्स टीन यानि लोहे का बनवा दिया था, जिस में डाकिया खुतूत के पेकिट वगेरा डाल दिया करता था, इस पर बराबर ताला लगा रहता के कोई इन खुतूत को न निकाले, इस की चाबी आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! के पास रहती थी, असर की नमाज़ पढ़ कर जब आप बाहर तशरीफ़ रखते तो हाजी साहब को चाबी अता कर देते, वो बॉक्स खोल कर उस दिन की सारी डाक सामने ला कर रख देते और एक एक खत पढ़ना शुरू करते, अगर खत तसव्वुफ़ के मुतअल्लिक़ होता तो आप खुद उस का जवाब तहरीर फरमाते, तावीज़ात के मुतअल्लिक़ खत हज़रत हुज्जतुल इस्लाम मौलाना हामिद रज़ा खान रहमतुल्लाह अलैह! के हवाले किए जाते, इस्तफ्ता, होता तो हज़रत सद रूश्शरीआ अल्लामा अमजद अली आज़मी रहमतुल्लाह अलैह, मलिकुल उलमा ज़फरुद्दीन बिहारी रहमतुल्लाह अलैह, या मौलाना सय्यद शाह गुलाम मुहम्मद साहब बिहारी के हवाले फरमाते, इस्तफ्ता बहुत पेचीदह और अहम होता तो आप खुद ही इस का जवाब तहरीर फरमाते। (हयाते आला हज़रत)
अदालत का लफ्ज़ इस्तेमाल न करते
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! अंग्रेजी अदालत के लिए कचहरी, का लफ्ज़ इस्तेमाल फरमाते, अदालत का लफ्ज़ इस्तेमाल न करते, अलबत्ता आप ने खुद एक मर्तबा बरेली शरीफ में “शरई दारुल क़ज़ा” काइम फ़रमाया जिस में हज़रत सद रूश्शरीआ अल्लामा अमजद अली आज़मी रहमतुल्लाह अलैह को “काज़िए शरआ” मुकर्रर फ़रमाया, जो मुक़द्दीमात के शरई फैसले फरमाते रहे।
नज़्र कबूल फरमाते
मलिकुल उलमा ज़फरुद्दीन बिहारी रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं के पहले आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी किसी की नज़र नहीं कबूल फरमाते थे, मगर जब एक हदीस शरीफ नज़र से गुज़री के “अगर कोई शख्स अपनी ख़ुशी से दे तो ले लेना चाहिए वरना वो खुद मांगे गा और न मिलेगा” उस दिन से नज़्र कबूल फरमाने लगे।
ग़िज़ा मुबारक
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! नहीफुल जुस्सा यानि कमज़ोर जिस्म वाले और निहायत कम ग़िज़ा थे, उन की आम ग़िज़ा चक्की के पिसे हुए आटे की रोटी और बकरी का कोरमा था, आखिर उमर में उनकी ग़िज़ा और भी कम रह गई थी फक्त एक प्याली शोरबा बकरी का बगैर मिर्च का और एक डेढ़ बिस्कुट सूजी का तनावुल फरमाते थे,
खाने पीने के मुआमले में आप निहायत सादा थे, एक बार आप की “अहलिया मुहतरमा इरशाद बेगम” ने आप की इल्मी मसरूफियत देख कर जहाँ आप कागज़ात और किताबें फैलाए हुए बैठे थे, दस्तर ख्वान बिछा कर कोरमे का प्याला रख दिया और रोटी चपातियां दस्तर ख्वान के एक कोने में लपेट दीं के ठंडी न हों जाएं, कुछ देर के बाद देखने के लिए तशरीफ़ लाई के हज़रत ने खाना खाया है या नहीं तो ये देख कर हैरत ज़दह रह गईं के सालन आप ने नोश फरमा लिया है केलिन चपातियां दस्तर ख्वान पे उसी तरह लिपटी हुई रखी हैं, पूछने पर आप ने फ़रमाया के चपातियां तो मेने देखीं नहीं, यानि समझा अभी नहीं पकी हैं लिहाज़ा में ने इत्मीनान से बोटियाँ खा लीं और शोरबा पीलिया।
आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु ने छबीस दिन खाना नहीं खाया
एक मर्तबा आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! किसी किताब का मुताला फरमा रहे थे साबिका यानि पहले ज़माने के आबिदीन औलियाए कामिलीन का ज़िक्र तहरीर था के फुला आबिद ने इतने रोज़ खाना नहीं खाया और खुदा की इबादत की और फुला फुला ने इतने इतने दिन खाना नहीं खाया और खुदा की इबादत करते रहे बस ये पढ़कर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने भी उसी वक़्त से खाना तनावुल फरमाना छोड़ दिया.
अहले खाना को और जिन जिन अहबाब को इस बात की खबर होती गई उनको फ़िक्र बढ़ती गई के क्या वजह है के आप ने खाना छोड़ दिया, कई बार घर वाले, दोस्त अहबाब और खुलफ़ा तलामिज़ा ने अर्ज़ किया हुज़ूर! खाना खा लीजिए, आपने फ़रमाया आप हज़रात खाना खाओ फ़क़ीर का रोज़ा है, वक़्त गुज़रता गया, अहबाब को फ़िक्र बढ़ती गई के आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! को खाना कैसे खिलाया जाए, आप दिन में रोज़ा रखते थे और सिर्फ पानी के चंद घूँट से रोज़ा इफ्तार फरमा लेते, कुछ भी नहीं खाते, यूं ही सहरी में भी पानी के चंद घूँट पी कर रोज़ा रख लेते, गालिबन रजाबुल मुरज्जब का महीना था, कुछ अहबाब ने सज्जादाए आस्तानाए आलिया मारहरा मुक़द्दसा पीरे तरीकत हज़रत सय्यद मेहदी मियां रहमतुल्लाह अलैह को खबर दी गई लेकिन वो घर पर मौजूद नहीं थे, शेर बेशाए अहले सुन्नत मुहाफिज़े नामूसे रिसालत हज़रत अल्लामा शाह हिदायत रसूल साहब को इत्तिला दी गई लेकिन वो भी मकान पर तशरीफ़ फरमा नहीं थे, तब्लिगे सुन्नियत में मुल्क का दौरा फरमा रहे थे, खेर जब आप को खबर मिली तो आप फ़ौरन बरेली शरीफ तशरीफ़ लाए,
मौलाना हिदायत रसूल को बताया गया के आज 26, रोज़ हो गए हैं के आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! ने खाना नहीं खाया कुछ समझ में नहीं आता के बात क्या है इतने में मगरिब की अज़ान होने लगी लोग मस्जिद की तरफ चल दिए, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! भी मकान से तशरीफ़ लाए और मस्जिद में जा कर नमाज़े मगरिब की इमामत की,
नमाज़ के बाद मौलाना हिदायत रसूल साहब ने कुछ फासले से खड़े हो कर सलाम अर्ज़ किया, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने सलाम का जवाब दिया और मौलाना हिदायत रसूल साहब को मुख़ातब कर के फ़रमाया क्यों मौलाना साहब! आज दूर कैसे खड़े हैं आओ मुसाफा करें, ये कह कर आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! उठे और मौलाना हिदायत रसूल साहब की तरफ बढे, मौलाना हिदायत रसूल पीछे हटे, आप ने फ़रमाया: साहब क्या बात है मौलाना हिदायत रसूल साहब ने कहा कुछ अर्ज़ करना चाहता हूँ आप ने कहा इरशाद फरमाइए, तो मौलाना हिदायत रसूल साहब ने कहा के “अब अहले सुन्नत को चूड़ियां पहन कर घर में बैठ जाना चाहिए” आला हज़रत! ने तअज्जुब में फ़रमाया मौलाना ये आप क्या कह रहे हैं,
मौलाना साहब! ने कहा जब अहले सुन्नत का इमाम खाना पीना छोड़ दे तो उस की दुनियावी ज़िन्दगी का क्या सहारा किया जा सकता है, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! ने फ़रमाया पहले ज़माने के आबिदीन औलियाए कामिलीन का ज़िक्र का हाल गुज़रा उन लोगों ने बगैर खाए पीये अल्लाह पाक की इबादत की और हम तो उम्मते मुस्तफा हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हैं, इस लिए में ने खाना छोड़ दिया, लेकिन हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह से अता होता रहा, मौलाना साहब! ने अर्ज़ किया हुज़ूर मेरी ऑंखें तो नहीं देखती हैं, में आप का मेहमान हो कर आया हूँ और मेहमान के साथ मेज़बान का खाना भी ज़रूरी है, मेरी ये ज़िद है के अगर आप खाना नहीं खाएंगें तो आज से में भी नहीं खाऊंगा, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! मौलाना साहब! का बड़ा लिहाज़ करते थे और मौलाना हिदायत रसूल साहब! की बात बहुत ज़ियादा मानते थे, फ़ौरन घर में इत्तिला दी और मेहमान खाने में दस्तर ख्वान बिछा दिया गया, खाना चुना गया मौलाना हिदायत रसूल साहब! ने अपने हाथ धूए फिर आला हज़रत! के धुलवाए और इस तरह 26, दिन के बाद आला हज़रत ने मौलाना हिदायत रसूल साहब! के साथ खाना खाया । (तजल्लियाते इमाम अहमद रज़ा)
मस्जिद का अदब
बरसात का मौसम था, इशा के वक़्त तेज़ हवा के झोंके मस्जिद के कड़वे तेल का चिराग बार बार बंद कर देते थे, जिस के रोशन करने में बारिश की वजह से सख्त दिक्कत होती थी, और इस की वजह ये भी थी खारिजे मस्जिद दिया सलाई जलाने का हुक्म था, और उस ज़माने में नारवे की दिया सलाई इस्तेमाल की जाती थी जिस के रोशन करने में गंदक पटाक की बदबू निकलती थी, लिहाज़ा उस तकलीफ को ख़त्म करने के लिए आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! के ख़ादिमें खास हाजी किफ़ायतुल्लाह साहब ने ये किया के एक लाल टेन में मामूली चार शीशे लगवा कर कुप्पी में अरंडी का तेल डाला और रोशन कर के हुज़ूर के साथ साथ मस्जिद के अंदर ले जा कर रख दी, थोड़ी देर हुई थी के आला हज़रत! की नज़र इस पर पड़ी, इरशाद फ़रमाया हाजी साहब! आप ने ये मसला बारहा सुना होगा के मस्जिद में बदबू दार तेल नहीं जलाना चाहिए, उन्होंने अर्ज़ किया हुज़ूर! इस में अरंडी का तेल है फ़रमाया राहगीर यानि आने जाने वाले लोग कैसे समझेंगें के इस लाल टेन में अरंडी का तेल जल रहा है वो तो यही कहेंगें के दूसरों को तो फतवा दिया जाता है के मिटटी का बदबूदार तेल मस्जिद में न जलाओ और खुद मस्जिद में लाल टेन जलवा रहे हैं, हां अगर आप बराबर इस के पास बैठे हुए ये कहते रहें के इस लाल टेन में अरंडी का तेल है, लाल टेन अरंडी का तेल है, तो मुज़ाइका नहीं, चुनांचे हाजी साहब! ने फ़ौरन उस लाल टेन को बंद कर के मस्जिद से बहार कर दिया।
तकरीर कैसी होती
हज़रत सद रूश्शरीआ अल्लामा अमजद अली आज़मी रहमतुल्लाह अलैह, इरशाद फरमाते हैं: आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! की तकरीर निहायत पुर मग्ज़, मुअस्सिर और तकरीर में इल्मी नुकात रुमूज़ बकसरत हुआ करते थे, कभी कोई तकरीर ऐसी नहीं हुई जिस में सामईन पर उमूमन गिरया न तारी हुआ हो और हर तरफ से आहो बुका, की आवाज़ें न आई हों, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! का वाइज़ सुनने के लिए लोग दूर दूर से आते थे, ख़ुसूसन रामपुर, मुरादाबाद, शाह जहानपुर, पिली भीत वगेरा।
वाइज़ के लिए “सद रूश्शरीआ” की जानशिनी
एक बार रबीउल अव्वल के जलसे में तकरीर के दौरान आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! का मिजाज़ा कुछ नासाज़ हो गया, दरदे सर की शिद्दत इतनी हुई के तकरीर जारी न रख सके तकरीर रोकने के बाद तख़्त पर मुझे बुलाया और इरशाद फ़रमाया: के आप तकरीर करो, मेने अर्ज़ किया क्या चीज़ बयान करूँ? इरशाद फ़रमाया के जो मज़मून में बयान कर रहा था उस को पूरा करो, भला कहाँ आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! का बयान और कहाँ मेरा बयान, मगर इन का हुक्म था तामील करनी पड़ी ये तो में नहीं कह सकता आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के बयान की तकमील थी मगर जो कुछ हो सका आखिर वक़्त तक इस सिलसिले में बयान कर के मजलिस को खत्म किया।
उस के सिवा है कौन जो है वही है
इसी तरह एक मर्तबा आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी का मिजाज़ ना साज़ था बहुत कोशिश फरमाई के मजलिस में चलें, वक़्त हो चुका था, मगर अलालत ने मोहलत ना दी, मौलाना मुहम्मद रज़ा खान साहब उर्फ़ नंन्हे मियां साहब! हाज़िर हुए और तशरीफ़ ले चलने के लिए अर्ज़ किया, इरशाद फ़रमाया के इस वक़्त हरारत है, तबीयत नासाज़ है अभी नहीं जा सकता, जाओ “अमजद अली” से कह दो के वो बयान करें और उस के सिवा है कौन जो है वही है,
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! के हुक्म के मुताबिक बयान शुरू किया, कुछ देर के बाद जब मिजाज़ में सुकून पैदा हुआ तो तशरीफ़ लाए और हुक्म दिया के तकरीर जारी रखो, तकरीर को एक हद तक पहुंचाया, इस के बाद में ने अर्ज़ किया सामईन व हाज़रीन चंद अल्फ़ाज़ हुज़ूर की ज़बान पाक से भी सुन्ना चाहते हैं, इन के दिल जोशे अकीदत से लबरेज़ हैं चुनांचे आखिर में आप ने मुख़्तसर सा कुछ मज़मून, फिर बयान विलादत पर इस सिलसिले को खत्म फ़रमाया।
महफ़िल में सरकार तशरीफ़ ले आए
आप के शागिरदो खलीफा हज़रत मौलाना बुरहानुल हक जबलपुरी रहमतुल्लाह अलैह आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की मजलिस वाइज़ में होने वाला एक चश्मदीद वाक़िआ बयान फरमाते हैं:
सनीचर हफ्ते को कसाई मोहल्ला मुंबई! में आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! का वाइज़ हुआ, मिम्बर के करीब वालिद माजिद और चचा के पीछे में दीवार से टिक्कर बैठा था, ईमान अफ़रोज़ नूरानी तकरीर से मजमे पर महवियत इस्तग़राक तारी था, तकरीबन एक घंटे बाद मुझे गुनूदगी नींद का गलबा हुआ, ख्वाब में देखा के एक अजीब दिलकश नूर से पूरी फ़िज़ा मुनव्वर है दुरूदो सलाम की सुरूर अफ़ज़ा से बेदार हुआ देखा के आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! मिम्बर से नीचे खड़े दस्त बस्ता: अस्सलातु वस्सलामू अलइका या रसूलल्लाह” पढ़ रहे हैं, चश्माने मुबारिका से क़तरात टपक रहे हैं, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! के आंसू जारी थे, और जिस वालिहाना अंदाज़ से महवे सलातो सलाम थे वो अजीब पुर कैफ मंज़र था जिस का इज़हार अल्फ़ाज़ में मुमकिन नहीं, सलातो सलाम से फारिग हो कर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! मिम्बर पे वापस तशरीफ़ लाए, तकरीबन आधा घंटा के बाद दुआ पर तकरीर खत्म हुई, हम आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! से इजाज़त ले कर क़याम गाह वापस हुए, रास्ते में वालिद और चाचा से में ने मस्जिद में दौरान वाइज़ ख्वाब का ज़िक्र किया, ख्वाब का वाकिअ सुन कर वालिद साहब ने इरशाद फ़रमाया: आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! मदीना मुनव्वरा ज़ादा हल्लाहु शरफऊं व तअज़ीमा और हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बतों अज़मत में सलातो सलाम पढ़ते हुए क़िबला रुख खड़े हो गए, विलादते मुबारिका का ज़िक्र भी ना था और वाइज़ खत्म करने का भी कोई अंदाज़ न था, दरअसल आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की बातनि, रूहानी नज़र ने देख लिया के हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तशरीफ़ फरमा हैं इस लिए फ़ौरन मिम्बर से उतर आए और “सलातो सलाम” पढ़ने लगे,
अगले दिन आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! की बारगाह में दोबारा हाज़री हुई तो क्या देखते हैं के एक साहब सफ़ेद घनी दाढ़ी, तुर्की टोपी लगाए आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के करीब बैठे हुए हैं, आंसू जारी हैं उन्होंने अर्ज़ किया के रात वाइज़ में वो मस्जिद के दरमियान दरवाज़े से लगे हुए बैठे थे और ऑंखें बंद थीं महवीयत के आलम में देखा के एक नूर सा मुहीत हो गया और: अस्सलातु वस्सलामू अलइका या रसूलल्लाह” की अवाज़ा पर आंख खुली तो सामने सारा मजमा खड़ा सलातो सलाम पढ़ रहा था, ये सुनकर वालिद साहब ने अर्ज़ किया हुज़ूर! ये मंज़र बुरहान! ने भी देखा है आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने सिर्फ ये फ़रमाया: सरकारे आज़म हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ये करम था के तजल्ली फरमाई, अल्हम्दुलिल्लाह।
में सितारे बनाने वाले को देख रहा हूँ
एक दिन मौलाना मुहम्मद हुसैन मेरठी के वालिद साहब तशरीफ़ लाए जो इल्मे नुजूम में बड़ी महारत रखते थे तो आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! ने उन से पुछा बारिश का क्या अंदाज़ है यानि कब होगी? उन्होंने सितारों की वजह से ज़ाईचा बनाया और फ़रमाया: इस महीने में बारिश नहीं होगी आइंदा महीने में होगी, ये कह कर वो ज़ाईचा आला हज़रत! की तरफ बढ़ा दिया, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने देख कर फ़रमाया: अल्लाह पाक को सब कुदरत है चाहे तो आज बारिश हो उन्होंने कहा ये कैसे हो सकता है, आप सितारों की चाल नहीं देखते, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया: में सब देख रहा हूँ और इस के साथ साथ सितारों के बनाने वाले और उस की कुदरारत को भी देख रहा हूँ फिर इस मुश्किल मसले को आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने किस कदर आसान तरीके से समझाया,
सामने घड़ी लटकी हुई थी, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने उन से पूछा वक़्त क्या है? बोले सवा ग्यारा बजे हैं, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया बारह 12, बजने में कितनी देर है शाह साहब! बोले ठीक पोन घंटा है, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! उठे और बड़ी सुई को घुमा दिया फ़ौरन टनटन बारह बजने लगे, अब आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया आप ने तो कहा था ठीक पोन घंटा है बारह बजने में, शाह साहब बोले आप ने इस की सुई घुमा दी वरना अपनी रफ़्तार से पोन घंटे ही के बाद बारह बजते, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया: अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त क़ादिरे मुतलक़ है के जिस सितारे को जिस वक़्त जहाँ चाहे पंहुचा दे, वो चाहे तो एक महीना क्या, एक हफ्ता क्या, एक दिन क्या, अभी बारिश होने लगे इतना ज़बान मुबारक से निकलना था के चारों तरफ से बादल छा गए और पानी बरसने लगा।
कुरसी पर मस्जिद में हाज़री
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! का एक साल पाऊं का अंगूठा पक गया, उन के खास जर्राह (जो शहर में सब से होशियार जर्राह थे जिन को बाज़ सिविल सर्जन भी खतरनाक ऑपरेशन में शरीक करते थे उनका नाम मौलाना बख्श मरहूम था) जर्राह ने इस अंगूठे का ऑपरेशन किया, पट्टी बांधे के बाद उन्होंने अर्ज़ किया, हुज़ूर! अगर हरकत ना करेंगें तो ये ज़ख्म दस बारह दिन में ठीक हो जाएगा वरना ज़ियादा वक़्त लगेगा, वो ये कह कर चले गए, ये कैसे मुमकिन हो सकता के मस्जिद की हाज़री और जमात की पाबंदी तर्क कर दी जाए, जब ज़ोहर का वक़्त आया तो आप ने वुज़ू किया खड़े न हो सकते थे तो बैठ कर बाहर फाटक तक आ गए लोगों ने कुर्सी पर बिठा कर मस्जिद में पहुंचाया और उसी वक़्त अहले मोहल्ला और खानदान वालों ने ये तय किया के अलावा मगरिब के हर अज़ान के बाद हम सब में से चार मज़बूत आदमी कुर्सी ले कर नमाज़ में हाज़िर हो जाया करेंगें और पलंग ही पर से कुर्सी पर बिठा कर मस्जिद की मेहराब के करीब बिठा दिया करेंगें और मगरिब की नमाज़ के वक़्त अंदाज़े से हाज़िर हो जाया करेंगें, ये सिलसिला तक़रीबन एक माह तक बड़ी पाबंदी से चलता रहा जब ज़ख्म अच्छा हो गया और आप खुद चलने के काबिल हो गए तो ये सिलसिला ख़त्म हुआ, कुर्सी उठाने वालों में से चार आदमियों में से इल्तिज़ाम के साथ अक्सर में भी होता था इस अमल को में अपनी बख्शिश का बड़ा ज़रिया समझता हूँ, नमाज़ तो नमाज़ है उनकी जमात का तर्क भी बिला उज़रे शरई शायद किसी साहब को याद न हो।
सफ़रो हज़र में नमाज़े बा जमाअत का एहतिमाम
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! सफ़रो हज़र, सेहत व अलालत हर हाल में जमाअत के साथ नमाज़ अदा करना ज़रूरी ख्याल फरमाते थे, अगर किसी गाड़ी से सफर करने में नमाज़ का वक़्त इस्टेशन पर नहीं मिलता तो आप उस गाड़ी से सफर ही नहीं करते और दूसरी गाड़ी से करते या नमाज़े जमाअत के लिए इस्टेशन पर उतर जाते और उस गाड़ी को छोड़ देते फिर जमाअत के साथ नमाज़ अदा करते,
कसीर रकम खर्च कर के नमाज़े जमाअत अदा की
आखरी सफरे हज व ज़ियारत में 1323, हिजरी में आगरा जक्शन पर गाड़ी बदलने में नमाज़ का वक़्त चला जाता और नमाज़ नहीं मिलती, लेकिन गाड़ी रिज़र्व रेशन कराने की सूरत में बदलने की ज़रूरत नहीं होती, बल्के सेकेण्ड किलास का वो डब्बा ही काट कर मुंबई वाली गाड़ी में जोड़ दिया जाता और नमाज़े बा जमाअत मिल जाती, लिहाज़ा आप ने 235, तेरह आने में सेकेण्ड किलास का डब्बा रिज़र्व रेशन करा लिया, जब गाड़ी आगरा पहुंचीं और आपने जमाअत से नमाज़ अदा की तो इस्टेशन ही से खत तहरीर फ़रमाया के “अल हम्दुलिल्लाह नमाज़ बा जमाअत अदा हो गई मेरे रुपए वुसूल हो गए आगे मुफ्त में जा रहा हूँ”
सुल्तानुल हिन्द ख्वाजा गरीब नवाज़ की बारगाह में हाज़री “ट्रेन का रुकना
एक मर्तबा ट्रेन पर सफर करते हुए इत्तिफाक से दौराने सफर नमाज़े मगरिब का वक़्त आ गया जब के ट्रेन चलने का वक़्त भी हो गया था, लेकिन आप ने नमाज़ को जमाअत के साथ अदा फ़रमाया और ट्रेन चलने की कतई परवा न की, मज़े की बात तो ये है के ट्रेन ने भी चलने से इंकार कर दिया ये दिलचस्प वाक़िआ अल्लामा ख़लीलुर रहमान चिश्ती साहब! अपनी किताब “इमाम अहमद रज़ा अज़ीम मुहसिने अज़ीम किरदार” में यूं लिखते हैं:
आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! अक्सर सुल्तानुल हिन्द अताए रसूल हज़रत ख्वाजाए ख्वाजगान ख्वाज़ा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह, के मज़ार शरीफ पर हाज़री के लिए तशरीफ़ ले जाया करते थे, एक मर्तबा अजमेर शरीफ जाने के लिए “बी बी एन्ड सी आर” ट्रेन पर सवार हुए दौरान सफर ये रेल गाड़ी फुलैरा! जक्शन पर पहुंची तो मगरिब का वक़्त हो चुका था, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! अपने मुरीदीन से फ़रमाया के नमाज़े मगरिब के लिए जमाअत पलेट फार्म पर ही अदा कर ली जाए, चुनांचे चादरें बिछा दी गईं सब ने वुज़ू किया और आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की इमामत में नमाज़े मगरिब अदा करने लगे इतने में गाड़ी चलने के लिए विश्ल यानि सीटी दी, लेकिन आप उसी खुशु ख़ुज़ू के साथ नमाज़ पढ़ते रहे,
डिराईवर ने गाड़ी चलाना चाही मगर गाड़ी का इंजन आगे नहीं बढ़ता था, डिराईवर व गार्ड सब परेशान हो गए के आखिर गाड़ी क्यों नहीं चल रही इंजन को टेस्ट करने के लिए गाड़ी को पीछे की तरफ चलाया तो गाड़ी पीछे की समत चलने लगी, इंजन बिलकुल ठीक था लेकिन यही इंजन जब आगे की तरफ चलाया जाता तो न चलता, इतने में स्टेशन मास्टर जो के अँगरेज़ था उस का नाम “राबर्ट” था, सारी सूरते हाल देखने के लिए आया, और आ कर गार्ड से पूछा के क्या बात है इंजन क्यों नहीं चल रहा है? गार्ड ने जवाब दिया के समझ में ये आता है के ये जो बुज़रुग! नामज पढ़ा रहे हैं कोई बहुत बड़े “वलीयुल्लाह” हैं जब तक इनकी नमाज़ नहीं होगी गाड़ी नहीं चलेगी, स्टेशन मास्टर के ये बात समझ में आ गई और वो नमाज़ियों की जमाअत के करीब आ कर खड़ा हो गया, नमाज़ में आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! का इस्तग़राक और खुशु ख़ुज़ू देख कर वो बहुत मुतअस्सिर हुआ,
इतने में आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! ने नमाज़ मुकम्मल फ़रमाई और दुआ मांगने लगे, जब आप दुआ से फारिग हुए तो स्टेशन मास्टर ने अर्ज़ की! हज़रत ज़रा जल्दी फरमाओ ये गाड़ी आप की मसरूफियत इबादत की वजह से चल नहीं रही, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने इरशाद फ़रमाया “इंशा अल्लाह अब ये गाड़ी चलेगी”ये फरमाकर आप अपने मुरीदीन के साथ गाड़ी में बैठ गए, गाड़ी ने सीटी बजाई और चलना शुरकर दिया, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! तो अजमेर शरीफ रवाना हो गए मगर उस स्टेशन मास्टर! पर इस करामत का गहरा असर हुआ और वो अपने खानदान के साथ अजमेर शरीफ हाज़िर हो कर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के दस्ते अक़दस पर ईमान ले आया, आप ने उस का नाम अब्दुल कादिर रखा और उसे सिलसिलए आलिया क़ादिरिया में अपना मुरीद भी किया।
(इमाम अहमद रज़ा अज़ीम मुहसिने अज़ीम किरदार)
ज़ियारते हरमैन शरीफ़ैन “हज
आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! ने दो मर्तबा हज अदा किए, पहली बार 1295, हिजरी मुताबिक 1878, ईसवी जब के आप की उम्र शरीफ उस वक़्त 23, साल थी,
पहला हज
आप के दिल में काबा शरीफ और दयारे रसूले आज़म हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हाज़री की तड़प एक मुद्दत से थी, अल्लाह पाक़ ने आप की ये दिली तमन्ना 1295, हिजरी मुताबिक 1878, ईसवी में पूरी फ़रमाई और आप अपने वालिदैन करीमैन के साथ हज्जे काबा व ज़ियारते सरकारे दो जहाँ हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए हाज़िर हुए,
उल्माए हरमैन शरीफ़ैन से हुसूले फैज़
इस सफर मुकद्द्स में हरमैन शरीफ़ैन के अकाबिर उलमा मसलन,
मुफ्तिए शाफईया हज़रत सय्यद अहमद ज़ैन दहलान मक्की (मुतवफ़्फ़ा 1304, हिजरी)
मुफ्तिए हनफ़िया हज़रत शैख़ अब्दुर रहमान सिराज मक्की (मुतवफ़्फ़ा 1301, हिजरी)
आप ने इन हज़रात से इल्मे हदीस, तफ़्सीर फ़िक़्ह और उसूले फ़िक़्ह की सनादें हासिल कीं,
पेशानी में अल्लाह का नूर
इसी सफर मुबारक में हराम शरीफ में नमाज़े मगरिब के बाद एक रोज़ इमामे शाफईया हज़रत शैख़ हुसैन बिन सालेह रहमतुल्लाह अलैह! (मुतवफ़्फ़ा 1302, हिजरी) बगैर किसी साबिका तआरुफ़ के आगे बढ़कर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! का हाथ पकड़ लेते हैं और अपने साथ घर ले जाते हैं, फरते मुहब्बत में देर तक आप की पेशानी देखते रहते हैं और जोशे अकीदत में फरमाते हैं “बेशक में इस पेशानी में अल्लाह का नूर महसूस कर रहा हूँ” फिर हज़रत शैख़ हुसैन बिन सालेह रहमतुल्लाह अलैह आप को “सेहा सित्ता” की सनद और सिलसिलए कादिरिया की इजाज़त अपने दस्तखत खास से अता फरमाते हैं और आप का नाम “ज़ियाउद्दीन” रखते हैं।
खुदा की कसम ये जहाज़ नहीं डूबेगा
पहले हज से वापसी पर जब के आप वालिदैन के साथ बहरी यानि समंदरी जहाज़ से तशरीफ़ ला रहे थे रास्ते में समंदरी तूफ़ान आ गया, इसकी तफ्सील कुछ यूं है: पहली बार हाज़री वालिदैन के साथ थी, उस वक़्त मुझे 23, वा साल था, वापसी में तीन दिन शदीद तूफ़ान रहा है, इस की तफ्सील बहुत तवील है, लोगों ने कफ़न पहन लिए थे, वालिदा माजिदा का इज़्तिराब देख कर उन की तस्कीन के लिए बे सख्ता मेरी जबाब से निकला के आप इत्मीनान रखो, खुदा की कसम ये जहाज़ न डूबेगा, ये कसम में ने हदीस ही के इत्मीनान पर खाई थी जिस में कश्ती पर सवार होते वक़्त डूबने से हिफाज़त की दुआ इरशाद हुई है, मेने वो दुआ पढ़ ली थी लिहाज़ा हदीस के वादा सादिका पर मुत्मइन था, फिर भी कसम के निकल जाने से खुद मुझे अंदेशा हुआ और फ़ौरन हदीस याद आई “जो अल्लाह पर कसम खाए अल्लाह उस की कसम को रद्द फरमा देता है” अल्लाह पाक़ की तरफ रुजू किया और सरकारे रिसालत हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम! से मदद मांगी, अल हम्दुलिल्लाह! वो मुखालिफ हवा के तीन दिन से शिद्दत से चल रही थी दो घडी में बिलकुल रुक गई और जहाज़ ने निजात पाई।
फतवा और तक़वा
(1) जिस फकीह के पास फतवे इतनी कसरत से आते हों के उस के औकात मसाइल के जवाब में मसरूफ हो, उसे जमाअत जो वाजिब है और
सुन्नते मुअक्किदा जो वाजिब के करीब हैं मुआफ हो जाती हैं, लेकिन इस कसरते फतवा के बावजूद हमेशा आप ने जमाअत की पाबन्दी
फ़रमाई और कभी भी सुन्नते मुअक्किदा न छोड़ीं,
(2) जो शख्स बिमारी में इतना लागर हो के मस्जिद नहीं पहुंच सकता लेकिन मर्ज़ बढ़ जाएगा, उस के लिए जमाअत छोड़ना जाइज़ है मगर
आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की आखरी बिमारी जिस में वसाल फ़रमाया, हाल ये था के मस्जिद तक अज़ खुद नहीं जा सकते थे फिर
भी फोते जमाअत गवारा न फ़रमाई, उन्हीं दिनों में “फतावा रज़विया शरीफ” में एक साइल को जवाब देते हुए इरशाद फ़रमाया, आप की
रजिस्टिरि 15, रबीउल आखिर शरीफ को हुई, में बारह रबीउल अव्वल शरीफ की मजलिस पढ़ कर ऐसा बीमार हुआ के कभी न हुआ था, में
ने वसीयत नामा भी लिखवा दिया था, आज तक ये हालत है के दरवाज़े से मुत्तसिल मस्जिद है, चार आदमी कुर्सी पर बिठा कर
मस्जिद ले जाते और लाते हैं,
(3) शैख़े फानी जो रोज़ा न रख सके उस के लिए जाइज़ है के रोज़ा न रखे और फ़िदया अदा करे, या जो सख्त बीमार है के रोज़ा रखने की
ताकत नहीं, उस के लिए क़ज़ा जाइज़ है, ज़िन्दगी की आखरी सालों में आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! का यही हाल था के बरेली शरीफ में
रोज़ा नहीं रख सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने लिए ये फतवा सादिर फ़रमाया के मुझ पर रोज़ा फ़र्ज़ है क्युंके (नैनी ताल एक पहाड़ी इलाका)
में ठण्ड की वजह से रोज़ा रखा जा सकता है और में वहां जा कर क़याम करने पर कादिर हूँ लिहाज़ा मुझ पर रोज़ा फ़र्ज़ है,
(4) बा काइदा टोपी कुरता, पा जामा, या तहबन्द पहन कर नमाज़ बिला शुबाह जाइज़ है कराहत भी नहीं, हां अमामा भी हो तो यकीनन
मुस्तहब है आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! बावजूद बहुत गर्म मिजाज़ थे, मगर कैसी भी गर्मी क्यों न हो हमेशा दस्तार और अंगरखे के
साथ नमाज़ पढ़ा करते थे, ख़ुसूसन फ़र्ज़ तो कभी सिर्फ टोपी और कुर्ते के साथ अदा न किए।
ये हांडी ले जाओ
एक मर्तबा एक साहब आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! की खिदमत में हाज़िर हुए और एक साफ सुथरी हांडी जिस में बदायूं शरीफ के पेड़े थे पेश की, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया कैसे तकल्लुफ किया? हुज़ूर! सलाम के लिए हाज़िर हुआ हूँ, थोड़ी देर खामोश रहे और फिर दरयाफ्त किया कहो कोई काम? कुछ नहीं यूं ही मिजाज़ पुरसी के लिए हाज़िर हो गया हूँ, इस के बाद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने वो शिरीनी की हांडी मकान में भिजवादी और अपने काम में मशगूल हो गए, थोड़ी देर के बाद उन साहब! ने एक तावीज़ की दरख्वास्त की, इस पर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! का अंदाज़ बदल गया और फ़रमाया: में ने तो पहले ही तीन बार मालूल किया मगर आप ने कुछ न बताया, अच्छा तशरीफ़ रखो,
इस के बाद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने अपने भांजे अली अहमद खान के पास से जो के तावीज़ बांटते थे, एक तावीज़ मंगा कर इन साहब को दिया और साथ में वो मिठाई की हांडी! भी घर से मंगवाकर वापस अता फ़रमाई और फ़रमाया के और फ़रमाया के इस को भी ले जाओ, उन्होंने बहुत ज़िद की के हुज़ूर! इस को कबूल फरमा लें मगर आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी! ने कबूल नहीं किया और फ़रमाया के “हमारे यहाँ तावीज़ बिकता नहीं है”, आखिर कार वो साहब शिरीनी! यानि मिठाई वापस ले गए।
रेफरेन्स हवाला
- तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
- सवानेह आला हज़रत
- सीरते आला हज़रत
- तज़किराए खानदाने आला हज़रत
- तजल्लियाते इमाम अहमद रज़ा
- हयाते आला हज़रत अज़
- फाज़ले बरेलवी उल्माए हिजाज़ की नज़र में
- इमाम अहमद रज़ा अरबाबे इल्मो दानिश की नज़र में
- फ़ैज़ाने आला हज़रत
- हयाते मौलाना अहमद रज़ा बरेलवी
- इमाम अहमद रज़ा रद्दे बिदअतो व मुन्किरात
- इमाम अहमद रज़ा और तसव्वुफ़