सरकार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

सरकार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी (पार्ट- 5)

कर अता अहमद रज़ाए अहमदे मुरसल मुझे
मेरे मौलाना हज़रते अहमद रज़ा के वास्ते

“आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की क़ुव्वते हाफ़िज़ा”

आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी को अल्लाह पाक ने बे मिसाल क़ुव्वते हाफ़िज़ा अता फ़रमाई थी, आप की बेमिसाल ज़हानत, फतानत, के कुछ वाक़िआत मुलाहिज़ा कीजिए,

एक चौथाई हिस्से से ज़ियादा किताब न पढ़ते

नवाब वहीद अहमद खान साहब रज़वी बरेलवी तहरीर फरमाते हैं के: मौलवी एहसान हुसैन साहब मरहूम (जो बचपन में आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी के हम सबक थे) फ़रमाया करते थे के: में “आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! को इब्तिदाई तालीम अरबी में हम सबक रहा हूँ, शुरू ही से “आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की ज़हानत का ये हाल था के उस्ताद से कभी भी रुबा यानि चौथाई हिस्सा किताब से ज़ियादा नहीं पढ़ा, किताब का एक चौथाई हिस्सा उस्ताद से पढ़ने के बाद बाकी पूरी किताब खुद पढ़ कर याद कर के सुना दिया करते थे।

एक माह में कुर्रान शरीफ हिफ़्ज़

जनाब सय्यद अय्यूब अली रज़वी साहब बयान फरमाते हैं के एक रोज़ सय्यदी आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने इरशाद फ़रमाया बाज़ नावाकिफ हज़रात मेरे नाम के साथ हाफिज़ लिख दिया करते हैं, जब के में इस लक़ब का अहिल नहीं हूँ, ये ज़रूर है के अगर कोई हाफिज़े कुरआन कलाम पाक का कोई रुकू एक बार पढ़ कर मुझे सुना दे तो वही रुकू दोबारा मुझ से सुन लें, (यानि सिर्फ सुन लेने से याद हो जाए) और उसी दिन से आप ने कुरआन शरीफ का दौर शुरू कर दिया, जिस का वक़्त गालिबन सिर्फ ईशा का वुज़ू करने के बाद से जमात कायम होने तक खास था, इस लिए के पहले रोज़ काशानए अक़दस यानि घर से मस्जिद की तरफ आते वक़्त “सूरह बकरा” शरीफ की तिलावत ज़बान पर थी और तीसरे रोज़ पाराऐ किरात में था, जिससे पता चला के रोज़ाना एक पारा याद फरमा लिया करते थे, यहाँ तक के तीसवें दिन तीसवा पारा सुनने में आया, चुनांचे आइंदा एक मोके पर इस की तस्दीक भी हो गई, अलफ़ाज़ इरशादे आली के याद नहीं हैं मगर कुछ इस तरह फ़रमाया: “बी हमदिल्लाह में ने कलामे पाक बा तरतीब बा कोशिश याद कर लिया और ये इस लिए के उन बंदिगाने खुदा का कहना (जो मुझे हाफ़िज़ कहते हैं) गलत साबित न हो”।

वही रुकू पढ़ दिया

मौलाना मुहम्मद हुसैन साहब मेरठी का मुशाहिदा भी इस बात को साबित करता है के आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी सिर्फ कुरआन शरीफ सुन कर ही याद कर लिया करते थे, वो फरमाते हैं के: में एक मर्तबा माहे रमज़ान शरीफ में “आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की मस्जिद में मोतक़िफ़ था, सहरी के वक़्त कुरआन शरीफ की तिलावत में मशगूल था के पढ़ते हुए में ने गलती की, “आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! करीब ही आराम फरमा रहे थे मगर बेदार थे, आप ने मुझे वो गलती बताई में ने दोबारा पढ़ा फ़रमाया अब मुझ से सुनो और वही रुकू पढ़ दिया इस के बाद सुबह की नमाज़ में भी आपने बिला तकल्लुफ वो रुकू पढ़ दिया।


मज़मून उमर भर के लिए याद हो गया

“हयाते आला हज़रत” में हज़रत मलिकुल उलमा ज़फरुद्दीन बिहारी रहमतुल्लाह अलैह लिखते हैं के: एक मर्तबा आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी पीलीभीत तशरीफ़ ले गए और हज़रत मौलाना शाह वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह के मेहमान हुए, गुफ्तुगू के दौरान में “उकू दुद दारिया फी तनकीहुल फतावा हमीदिया” का ज़िक्र निकला हज़रत मौलाना शाह वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया के: मेरे क़ुतुब खाने में मौजूद है, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के क़ुतुब खाने में अगरचे किताबों का ज़खीरा था और हर साल माकूल रकम की नई नई किताबें भी आया करती थीं, मगर उस वक़्त तक “उकू दुद दारिया फी तनकीहुल फतावा हमीदिया” मंगवाने का इत्तिफाक नहीं हुआ था, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने इरशाद फ़रमाया: में ने ये किताब नहीं देखि है, जाते वक़्त मेरे साथ कर दीजिए हज़रत मुहद्दिसे सूरति! ने बा ख़ुशी क़ुबूल किया और किताब ला कर हाज़िर करदी, मगर साथ ये भी फ़रमाया के, जब आप मुलाहिज़ा फरमा लें तो वापस भेज दीजिएगा, इस लिए आप के यहाँ तो बहुत किताबें हैं मेरे पास यही गिनती की चंद किताबें हैं जिन से फतवा दिया करता हूँ, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने इरशाद फ़रमाया:

अच्छा! आप का क़स्द उसी दिन वापसी बरेली शरीफ जाने का था मगर आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी के एक जानिसार मुरीद ने आप की अगले दिन दावत कर दी जिस की वजह से पीलीभीत में मज़ीद एक रात रुकना पड़ा, रात को आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! “उकू दुद दारिया” को (जो एक ज़खीम किताब दो जिल्दों में थी) मुलाहिज़ा फरमा लिया, दुसरे दिन दोपहर के बाद ज़ोहर की नमाज़ पढ़ कर गाड़ी का वक़्त था, आप ने बरेली शरीफ रवानगी का क़स्द फ़रमाया, जब असबाब दुरुस्त किया जाने लगा तो “उकू दुद दारिया” को बजाए सामान रखने के फ़रमाया के ये किताब हज़रत मौलाना शाह वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह को वापस दे आओ, मुझे (मौलाना ज़फरुद्दीन बिहारी) तअज्जुब हुआ के इरादा तो ले जाने का था वापस क्यों फरमा रहे हैं, लेकिन कुछ बोलने की हिम्मत ना हुई, में ने हज़रत मुहद्दिसे सूरति! की खिदमत में हाज़िर हुआ, वो हज़रत मौलाना शाह वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह से मिलने और स्टेशन तक साथ जाने के लिए ज़नाना मकान से तशरीफ़ ला रही रहे थे के में ने आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी का इरशाद फ़रमाया हुआ जुमला अर्ज़ किया (हज़रत मौलाना शाह वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह को वापस दे आओ) हज़रत मौलाना शाह वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह बड़े हैरान हुए के ये किताब तो आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने बरेली शरीफ साथ ले जा कर जाना थी वापस क्यों कर दी? चुनांचे आप मेरे साथ ही आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की बारगाह में हाज़िर हुए और अर्ज़ की के मेरे इस कहने का के “जब मुलाहिज़ा फरमा लें तो भेज देना” का शायद आप को मलाल हुआ के इस किताब को वापस क्यों किया, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने इरशाद फ़रमाया: इरादा साथ बरेली ले जाने का ही था, और अगर कल जाता तो साथ ले जाता, लेकिन जब कल जाना हुआ तो रात में और सुबह के वक़्त पूरी किताब देख ली, अब ले जाने की ज़रूरत ही नहीं रही, हज़रते मुहद्दिसे सूरति! ने फ़रमाया: बस एक बार देखन लेना काफी हो गया? आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने फ़रमाया: अल्लाह पाक के फ़ज़्लो करम से उम्मीद है के दो तीन महीना तक तो (इस किताब में से) जहाँ की इबारत की ज़रूरत होगी फतावा में लिख दूंगा, और मज़मून तो इंशा अल्लाह तआला उमर भर के लिए महफूज़ हो गया।

मुहद्दिसे आज़म हिन्द का बयान

ख़लीफ़ए आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! हज़रत मुहद्दिसे आज़म हिन्द अबुल मुहामिद सय्यद मुहम्मद मुहद्दिसे किछौछवी रहमतुल्लाह अलैह जो के कुछ अरसा के लिए आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी की बारगाह में इफ्ता की तरबीयत हासिल करने के लिए हाज़िर हुए थे, अपनी उस यादगार दौर का ज़िक्र अपने ख़ुत्बाए सदारत में करते हैं जो के आप ने जश्ने यौमे विलादत आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! मुनअक़िदा माहे शव्वाल 1379, हिजरी नागपुर में इरशाद फ़रमाया, हज़रत मुहद्दिसे आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह ही की ज़बानी सुनते हैं, “दरियाए इल्म के साहिल को पा लिया” आज में आप को जग बीती बल्के आप बीती सुना रहा हूँ के: जब तकमीले दरसे निज़ामी व तकमीले दरसे हदीस के बाद मेरे मरब्बियों यानि सरपरस्तों ने कारे इफ्ता के लिए आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के हवाले किया तो ज़िन्दगी की यहीं घड़ियाँ मेरे लिए सरमायाए हयात हो गईं और महसूस करने लगा के आज तक जो कुछ पढ़ा था वो कुछ ना था और अब एक “दरियाए इल्म के साहिल को पा लिया” इल्म को रासिख़ मज़बूत फरमाना और ईमान को रग व पै में उतार देना और सही इल्म दे कर तज़कियाए नफ़्स फरमा देना ये वो करामात थी जो हर मिनट पर ज़ाहिर होती रहती थी।

एक वक़्त में कई काम

आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी की आदते करीमा ये थी के इस्तिफ़सार (सवालात) एक एक मुफ़्ती को तकसीम फरमा देते और फिर हम लोग दिन भर मेहनत कर के जवाबात तय्यार करते, फिर असर व मगरिब के दरमियान मुख़्तसर वक़्त में हर एक से पहले इस्तिफता यानि सवाल फिर जवाबी फतावे समाअत फरमाते, और एक ही वक़्त में सब की सुनते, उसी मुख़्तसर वक़्त में मुसन्निफीन अपनी तस्नीफ़ दिखाते, ज़बानी सवाल करने वालों को भी इजाज़त थी के जो कहना हों कहें और जो सुनाना हो सुनाएं, इतनी आवाज़ें इस कदर जुदागाना बातें, और सिर्फ एक ज़ात को सब की तरफ तवज्जुह फरमाना, जवाबात की तसही व तस्दीक व इस्लाह, मुसन्निफीन की ताईद व तसही अगलात, ज़बानी सवालात का तशफ्फी बख्श जवाब अता हो रहा है और फ़लसफ़ियों के इस खब्त (गलत नज़रिये की) के (एक वक़्त में इंसान एक ही काम कर सकता है) की धज्जियां उड़ा रहें हैं, जिस से हंगामाए सवालातों जवाबात में बड़े बड़े अकाबिरे इल्मों फन सर थाम के चुप हो जाते हैं के किस की सुनें और किस की न सुनें, वहां सब की सुनवाई होती थी, और सब की इस्लाह फरमा दी जाती थी, यहाँ तक के अदबी खता भी नज़र पड़ जाती तो उस को भी दुरुस्त फरमा दिया करते थे।

आप को चौदह सौ साल की किताबें याद थीं। ये चीज़ रोज़ पेश आती थीं के तकमीले (पूरा) जवाब के लिए जुज़ियात फ़िक़्ह की तलाश में जो लोग थक जाते तो आप की बारगाह में अर्ज़ करते, आप उसी वक़्त इरशाद फरमा देते के “रद्दुल मुहतार” जिल्द फलां के सफा फलां की सतर फलां में इन लफ़्ज़ों के साथ जुज़िया मौजूद हैं, “दुर्रे मुख़्तार” के फलां सफा, सतर में ये इबारत है, “आलम गिरी” में बा कैदे जिल्द व सफा व सतर ये अल्फ़ाज़ मौजूद हैं, “हिंदिया” में ये हैं, “मबसूत” में ये हैं, हर हवाला और किताब की असल इबारत सफा व सतर बता देते, अब जो किताबों में जा कर देखते तो सफा व सतर व इबारत वहीं पर मिलती जो आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने ज़बानी इरशाद फ़रमाया था सुब्हानल्लाह! इस को आप ज़ियादा से ज़ियादा यही कह सकते हैं के खुदा दाद क़ुव्वते हाफ़िज़ा से “सारी चौदह सौ साल की किताबें याद थीं”।

हक वही है जो आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने लिखा

आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी की उमर शरीफ 19, 20, साल थी और आप को फतावा लिखते हुए 6, साल हो चुके थे के आप के साथ एक दिल चस्प वाक़िआ पेश आया चुनांचे:

एक साहब “रामपुर” से हज़रत अक़दस मौलाना शाह नकी अली खान कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी का इस्मे गिरामी सुन कर बरेली आए और एक फतवा पेश किया, जिस में जनाब मौलाना इरशाद हुसैन मुजद्दिदी रामपुरी साहब इर्शादुस सर्फ़! का फतवा तहरीर था, जिस पर अक्सर उल्माए किराम की मुहरें दस्तखत थे, हज़रत अक़दस मौलाना शाह नकी अली खान कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने फ़रमाया के कमरे में मौलवी साहब! हैं उन को दे दीजिए जवाब लिख देगें, वो कमरें में गए और वापस आ कर अर्ज़ किया वहां तो कोई मौलवी साहब! नहीं हैं, सिर्फ एक साहब ज़ादे हैं, हज़रत ने फ़रमाया: उन्हीं को दे दो, वो लिख देंगें, उन्होंने अर्ज़ की हुज़ूर! में तो आप का शोहरा सुनकर आया हूँ, हज़रत ने फ़रमाया “आज कल वही फतवा लिखा करते हैं उन को दे दीजिए”

गरज़ उन साहब ने ये फतवा आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की बारगाह में पेश कर दिया, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने जो इस फतवे को देखा तो ठीक ना था, आप ने उस जवाब के खिलाफ जवाब तहरीर फरमा कर अपने वालिद माजिद की खिदमत में पेश किया और हज़रत अक़दस मौलाना शाह नकी अली खान कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने इस जवाब की तस्दीक फरमा दी, वो साहब इस फतवे को ले कर रामपुर पहुंचे (ये फतवा दरअसल नवाब ऑफ़ रामपर ही की तरफ से तस्दीक के लिए भेजा गया था) जब नवाब ऑफ़ रामपुर (कलब अली खान) की नज़र से ये फतवा गुज़रा तो शुरू से आखिर तक इस फतवे को पढ़ा, और हज़रत मौलाना इरशाद हुसैन साहब! को बुलाया, आप तशरीफ़ लाए तो वो फतवा आप की खिदमत में पेश किया,
हज़रत मौलाना इरशाद हुसैन साहब! की हक पसंदी व हक गोई मुलाहिज़ा हो, साफ फ़रमाया: “फिल हकीकत वही हुक्म सही है जो बरेली शरीफ से आया है” नवाब साहब ने पूछा फिर इतने सारे उल्माए किराम ने आप के जवाब की तस्दीक किस तरह कर दी, फ़रमाया उन हज़रात ने मुझ पर मेरी शोहरत की वजह से भरोसा किया और मेरे फतवे की तस्दीक कर दी वरना हक वही है जो उन्होंने लिखा, ये सुन कर आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी जिन्होंने ये फतवा लिखा है की उमर शरीफ सिर्फ 19, 20, साल है, नवाब साहब को मुलाकात का शोक हुआ, (आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की शादी रामपुर में जनाब शैख़ फ़ज़्ल हुसैन की साहबज़ादी से हुई थी, शैख़ फ़ज़्ल हुसैन साहब! रामपुर के डाक खाने में आला अफसर की हैसियत से थे और नवाब साहब के करीबी थे, उन के ज़रिए नवाब साहब आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! से मुलाकात के मुता मन्नी हुए ।

मजज़ूब के सामने कलमाए हक

बरेली शरीफ में साईं धोका शाह साहब नामी एक मजज़ूब रहते थे, जिन पर जज़्ब की कैफियत तारी रहती थी, 1316, हिजरी का वाक़िआ है के हज़रत धोका शाह साहब आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी की बारगाह में हाज़िर हुए और आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! से कहने लगे: हुज़ूर सय्यदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत ज़मीन पर नज़र आ रही है और आसमान पर नज़र नहीं आती, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने इरशाद फ़रमाया: “शहंशाहे कौनो मका हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत जिस तरह ज़मीन पर है इसी तरह आसमान पर भी है” इस के बाद हज़रत धोका शाह साहब ने फिर अर्ज़ किया: सय्यदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत बहरो बर, ख़ुश्को तर, बरगो समर, शजरो हजर, शमशो कमर, ज़मीनो आसमान, हर चीज़ पर हर जगह जारी थी, जारी है, और जारी रहेगी, ये जवाब सुन कर हज़रत धोका शाह साहब चले गए, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी के साहब ज़ादे (हुज़ूर सरकार मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान) क़िबला की उमर शरीफ उस वक़्त छेह 6, साल की थी, आप कोठे पर तशरीफ़ फरमा थे, कुछ देर के बाद कोठे पर से गिर पड़े, वालिदा साहिबा ने आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! को अवाज़ा दी और फ़रमाया: तुम अभी मजज़ूब से उलझे और मजज़ूब शायद गुस्से में चले गए देखो जभी तो ये “मुस्तफा रज़ा” कोठे से गिर पड़े, मजज़ूबों से उलझना नहीं चाहिए।

ऐसे हज़ार बेटे भी हों तो कुर्बान हैं

आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवीआला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया: मुस्तफा रज़ा! कोठे पर से गिरे तो हैं लेकिन चोट नहीं लगी होगी, चुनांचे देखा गया तो शहज़ादे मुस्कुरा रहे थे, फिर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने इरशाद फ़रमाया: “मौला तआला अगर ऐसे ऐसे “मुस्तफा रज़ा” हज़ार अता फरमाए तो खुदा की कसम उन सब को शरीअते मुतह्हरा पर कुर्बान कर सकता हूँ, लेकिन शरीअते मुतह्हरा पर कोई हर्फ़ ना आने दूंगा”, फिर फ़रमाया ये मजज़ूब तो फ़क़ीर के पास अपनी इस्लाह के लिए तशरीफ़ लाते हैं और ये काम फ़कीर के सुपुर्द है, हज़रत धोका शाह साहब ज़मीन की सेर फरमा चुके थे अब आसमान की सेर फरमाने जा रहे थे, लिहाज़ा उस की ज़रूरत थी जिससे हुज़ूर सरवरे कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इख़्तियारात आसमान पर भी मुलाहिज़ा फरमाते, इस लिए फ़कीर के पास तशरीफ़ लाए, “वो नज़र उन को अता कर दी गई” कुछ देर के बाद हज़रत धोका शाह साहब दोबारा फिर हाज़िर हुए आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की तरफ बढ़कर मुआनका किया और पेशानी चूमली! फिर फ़रमाया खुदा की कसम! जिस तरफ हुज़ूर सरवरे कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत ज़मीन पर है, उसी तरह आसमान पर भी बल्के हर जगह हर शै चीज़, पर हुज़ूर सरवरे कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत देख रहा हूँ, आप के तुफैल हुज़ूर सरवरे कौनैन सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हुकूमत नज़र आ रही है।

दाढ़ी हद्दे शरआ तक रखो तब मिलेगा

जनाब हाजी खुदा बख्श साहब (खादिम आला हज़रत) रिवायत करते हैं के: एक दिन में ने सुबह की नमाज़ आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी के पीछे पढ़ी, जब आप नमाज़ पढ़ा चुके तो देखा के, एक मुसाफिर साहब आए हुए हैं, उन्होंने आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! को एक खत दिया, वो साहब आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के मुरीद भी थे, और उनकी दाढ़ी पूरी नहीं थी हद्दे शरआ से कम थी, उन्होंने ख्वाइश ज़ाहिर की के कोई वज़ीफ़ा हुज़ूर! मुझे बता दीजिये, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फ़रमाया के: “जिस वक़्त तुम्हारी दाढ़ी हद्दे शरआ के मुताबिक हो जाएगी उस वक़्त में वज़ीफ़ा वगेरा बता दूंगा” वो साहब वज़ीफ़ा हासिल करने के लिए एक बुज़रुग का सिफारशी खत भी लाए थे के इन को कुछ बता दीजिए, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने सिफारशी रुक्का यानि परचा खत देखने के बाद फ़रमाया जब तक तुम दाढ़ी हद्दे शरआ तक बढ़ा कर न आओगे यानि पूरी नहीं रखेगा उस वक़्त तक तुम चाहे किसी की भी सिफारिश लाओ तुम को कुछ नहीं बताऊंगा, जब दाढ़ी पूरी रख लोगे तो में खुद ही बता दूंगा, इस में किसी की सिफारिश की ज़रूरत नहीं।

सोने की अंगूठी पहिनने वाले की इस्लाह

सज्जादा नशीन मारहरा मुक़द्दसा हज़रत सय्यद मेहदी हसन मियां रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं, में जब बरेली शरीफ आता तो आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी खुद खाना खिलाते, और हाथ धुलाते, एक बार में ने सोने की अंगूठी और छल्ले पहने हुए थे, हस्बे दस्तूर जब हाथ धुलवाने लगे तो फ़रमाया: शहज़ादे हुज़ूर! ये अंगूठी छल्ले मुझे दे दो! में ने उतार कर दे दिए और मुंबई चला गया, मुंबई से जब मारहरा शरीफ वापस आया तो मेरी बेटी फातिमा ने कहा “अब्बा हुज़ूर! बरेली शरीफ के मौलाना साहब यानि आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के यहाँ से पार्सल आया था, जिस में छल्ले अंगूठी और एक खत था जिस में ये लिखा था “शहज़ादी साहिबा ये दोनों तलाई चीज़ें आप की हैं (क्यों के मर्दों को इन का पहिनना जाइज़ नहीं)।

आप को चाहिए था के उसे फ़ौरन कलमा पढ़ा देते

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब रहमतुल्लाह अलैह का बयान है: एक रोज़ एक साहब किसी गैर मुस्लिम को आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की बारगाह में ले कर आए और अर्ज़ की “ये मुस्लमान होना चाहते हैं” फ़रमाया: कलमा पढ़वा दिया है? अर्ज़ किया अभी नहीं पढ़वाया, ये सुन कर आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने बिला ताख़ीर फ़ौरन उस गैर मुस्लिम को कहा पढ़ो “लाइलाहा इलल्लाहु मुहम्मदुर रसूलुल्लाह” अब कहो में इस पर ईमान लाया, मेरा दीन मुसलमानो का दीन है, एक खुदा के सिवा सब मअबूद झूठे हैं, अल्लाह के सिवा किसी की पूजा नहीं है, ज़िंदह करने वाला एक अल्लाह है, मरने वाला एक अल्लाह है, पानी बरसाने वाला एक अल्लाह है, रोज़ी देने वाला एक अल्लाह है, सच्चा दीन इस्लाम है, बाकी सब झूठे हैं, इस के बाद कैंची मंगवा कर उस के बालों की चोटी काटी और कटोरे में पानी मंगवा कर थोड़ा सा खुद पिया बाकि उसे दिया और उससे जो बचा, वो हाज़रीन मुस्लमान ने थोड़ा थोड़ा पिया, उस खुश किस्मत नो मुस्लिम का इस्लामी नाम “अब्दुल्लाह रखा” फिर जो साहब उसे ले कर आए थे उन से फ़रमाया: जिस वक़्त कोई इस्लाम में आने को कहे, फ़ौरन कलमा पढ़ा देना चाहिए के अगर कुछ भी देर की तो गोया इतनी देर उस के कुफ्र पर रहने की मआज़ अल्लाह रज़ा मंदी है! आप को चाहिए था के उसे फ़ौरन कलमा पढ़ा देते फिर यहाँ लाते और कहीं ले जाते, ये सुन कर उस ने दस्त बस्ता अर्ज़ की हुज़ूर! मुझे ये बात मालूम न थी में अपनी इस गलती पर नादिम हो कर सच्चे दिल से तौबा करता हूँ, फ़रमाया अल्लाह करीम माफ़ फरमाने वाला है, आप भी कलमा पढ़ लीजिए उसने फ़ौरन कलमा पढ़ा और सलाम व दस्त बोसी के बाद वापस चला गया।

में दूसरी तरफ मुँह फेर लेता था

एक दफा अली गढ़ से एक शख्स अपना बेग वगेरा लिए आया, उसकी सूरत देख कर मेरे क्लब ने कहा “ये राफ्ज़ी” है दरयाफ्त करने पर मालूम हुआ के वाकई राफ्ज़ी है, उस ने कहा में अपने मकान को लखनऊ जाता था, रास्ते में सिर्फ आप की ज़ियारत के लिए उतर पड़ा हूँ, क्या आप अहले सुन्नत में ऐसे ही हैं जैसे हमारे यहाँ मुज्तहदीन? में ने कोई तवज्जुह न दी, गरज़ वो राफ्ज़ी अपनी तरफ मुझे मुख़ातब करता था और में दूसरी तरफ मुँह फेर लेता था, आखिर उठ कर चला गया, उस के जाने के बाद एक साहब शिकायत करने लगे के वो इतनी दूरी तय कर के आया और आप ने तवज्जुह न फ़रमाई, (में ने ये रिवायत अमीरुल मोमिनीन हज़रत उमर फ़ारूके आज़म रदियल्लाहु अन्हु की के जिस वक़्त आप को मालूम हुआ के ये मेहमान बदमज़हब है फ़ौरन खाना सामने से उठा लिया और उसे निकलवा दिया) बयान की के हमारे अइम्मए किराम ने इन लोगों के साथ हमें यही तहज़ीब बताई है, अब भला वो क्या कह सकते थे? खामोश हो गए।

नवाब साहब से न मिले

ये तो खेर मुसाफिर थे आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवीp ने तो किसी नवाब की भी परवाह न फ़रमाई “सीरते इमाम अहमद रज़ा” में है के: नवाब हामिद अली खान रामपुरी के मुतअल्लिक़ मालूम हुआ के उन्होंने आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! को लिखा के हुज़ूर रामपुर तशरीफ़ लाएं तो में बहुत ही खुश हूँगा, अगर ये मुमकिन न हो तो मुझ ही को ज़ियारत का मौका दीजिये, आप ने जवाब में फ़रमाया: चूंके आप सहाबाए किराम के मुख़ालिश शीयों के तरफ़दार और उन की ताज़ियेदारी और मातम वगेरा की बिदअत में शामिल हो, लिहाज़ा में न आप को देखना जाइज़ समझता हूँ और ना ही अपनी सूरत दिखाना पसंद करता हूँ।

बद मज़हबों के पास बैठना कैसा?

आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! से जब ये सवाल किया गया के: अक्सर लोग बद मज़हबों के पास जान बूझ कर बैठते हैं उन के लिए क्या हुक्म है? तो इरशाद फ़रमाया: हराम है और बद मज़हब हो जाने का अंदेशा कामिल है, और दोस्ताना तो दीन के लिए ज़हरे कातिल हुज़ूर सय्यदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं: “उन्हें अपने से दूर करो और उन से दूर भागो वो तुम्हें गुमराह ना कर दें कहीं वो तुम्हें फ़ित्ने में ना डाले” और अपने नफ़्स पर ऐतिमाद करने वाला (यानि ये समझने वाला के मुझे उनकी सुहबत से कुछ असर न होगा) बड़े कज़्ज़ाब पर ऐतिमाद करता है, “नफ़्स अगर कोई बात कसम खा कर कहे तो सब से बढ़ कर झूठा है न के जब खाली वादा करे” सही अहादीस में फ़रमाया: जब दज्जाल निकलेगा, कुछ लोग इसे तमाशे के तौर पर देखने जाएंगें के हम तो अपने दीन पर मुस्तकीम यानि काइम हैं, हमे इससे क्या नुकसान होगा? वहां जा कर वैसे ही हो जाएंगें, हदीस शरीफ में है हुज़ूर सय्यदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: “में हलफ से कहता हूँ जो जिस कोम से दोस्ती रखता है उस का हश्र उसी के साथ होगा” हुज़ूर सय्यदे आलम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इरशाद हमारा ईमान, और फिर हुज़ूर का हल्फ़ यानि कसम से फरमाना, दूसरी हदीस है जो काफिरों से मुहब्बत रखेगा वो इन्हीं में से है।

मरते वक़्त कलमा नसीब न हुआ

हज़रते अल्लामा शैख़ इमाम जलालुद्दीन सीयूती कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी “शरहुस सुदूर” में नकल फरमाते हैं: एक शख्स राफ्ज़ी के पास बैठा करता था, जब उस की मोत का वक़्त आया, लोगों ने हस्बे मामूल कलमा शरीफ की तलकीन की, कहा: नहीं कहा: जाता, पूछा क्यों? कहा: ये दो शख्स खड़े कह रहे हैं तू उन के पास बैठा करता था जो हज़रते अबू बक्र सिद्द्दीक व उमर फ़ारूके आज़म रदियल्लाहु अन्हुमा! को बुरा कहते थे, अब तू चाहता है के कलमा पढ़ कर उठे, हरगिज़ न पढ़ने देंगें,
ये नतीजा है बद मज़हबों के पास बैठने का, हज़रते अबू बक्र सिद्द्दीक व उमर फ़ारूके आज़म रदियल्लाहु अन्हुमा! के बदगोयों यानि बुरा कहने वालों से मेल जोल की ये शामत है तो काद्यानियों और वहाबियों और देओबन्दियों के पास नशिश्त व बर्ख्वस्त यानि उठने बैठने की आफत किस क़द्र शदीद होगी? इन शीयों की बदगोई सहाबा तक है और उन (वहाबियों और देओबन्दियों) की अम्बिया और सय्यदुल अम्बिया हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक।

रेफरेन्स हवाला

  • तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
  • सवानेह आला हज़रत
  • सीरते आला हज़रत
  • तज़किराए खानदाने आला हज़रत
  • तजल्लियाते इमाम अहमद रज़ा
  • हयाते आला हज़रत अज़
  • फाज़ले बरेलवी उल्माए हिजाज़ की नज़र में
  • इमाम अहमद रज़ा अरबाबे इल्मो दानिश की नज़र में
  • फ़ैज़ाने आला हज़रत
  • हयाते मौलाना अहमद रज़ा बरेलवी
  • इमाम अहमद रज़ा रद्दे बिदअतो व मुन्किरात
  • इमाम अहमद रज़ा और तसव्वुफ़

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