सरकार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

सरकार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी (पार्ट- 2)

कर अता अहमद रज़ाए अहमदे मुरसल मुझे
मेरे मौलाना हज़रते अहमद रज़ा के वास्ते

तालीम का शोक

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी की बड़ी हमशीराह मुहतरमा फरमाती हैं के आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने कभी पढ़ने में ज़िद नहीं की खुद से बराबर पढ़ने जाते थे, जुमा के दिन भी चाहा के पढ़ने को जाएं मगर वालिद साहब के मना फरमाने से रुक गए और समझ लिया के हफ्ते में जुमा के दिन की बहुत अहमियत है इस की वजह से नहीं पढ़ना चाहिए, बाकी छेह 6, दिन पढ़ने के हैं।

बचपन में भी गलती से महफूज़

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं के: बचपन में आप को घर पर एक मौलाना साहब कुरआन मजीद पढ़ाने आया करते थे, एक रोज़ का ज़िक्र है के मौलाना साहब किसी आयते करीमा में बार बार एक लफ्ज़ को बताते थे, मगर आप की ज़बान मुबारक से नहीं निकलता था, वो “ज़बर” बताते थे आप “ज़ेर” पढ़ते थे, ये कैफियत जब आप के दादा जान हज़रत मौलाना रज़ा अली खान साहब रहमतुल्लाह अलैह ने देखि तो आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी को अपने पास बुलाया और कलामे पाक मंगवाकर देखा तो उस में कातिब ने गलती से ज़ेर की जगह ज़बर लिख दिया था, जो आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी की ज़बान से निकलता था वो सही था, आप के दादा जान ने पूछा के बेटे जिस तरह मौलाना साहब पढ़ाते थे तुम उस तरह क्यों नहीं पढ़ते थे? गरज़ की में इरादा करता था मगर ज़बान पर काबू न पाया था, दादा जान ने फ़रमाया खूब! और तबस्सुम फरमा कर सर पर हाथ फेरा और दिल से दुआ दी फिर इन मौलाना साहब से फ़रमाया ये बच्चा सही पढ़ रहा था हकीकत में कातिब ने गलत लिख दिया है फिर कलम से इस की तसही फ़रमाई यानि उस गलती को सही क्या.

बचपन में शरई इस्लाह

छोटी छोटी शरई गलती पर आप बचपन ही में बिला तकल्लुफ बोल दिया करते थे, ऐसा मालूम होता था के गलती की तसही क़ुदरत ही ने इनकी आदते सानिया बना दी है, चूंके इन से आगे चलकर अल्लाह पाक को यही काम लेना था, अल्लाह पाक ने ऐसे घर में पैदा किया जहाँ कालल्लाह व कालररसूल ही रोज़ मर्राह था और आप को इस सोहबत का शोक भी था आप अपने वालिद माजिद की सुहबत में ज़ियादा बैठते और मसाइल को बागोर सुनते और उन्हें अपने दिमाग में महफूज़ रखते और वक़्त पर बड़ी जुरअत से बता देते के ये मसला यूं है।

(सीरते आला हज़रत अज़ अल्लामा हसनैन रज़ा खान मतबूआ क़ुतुब खाना अमजदिया दिल्ली)

एक दिन आप के उस्ताज़े मुहतरम बच्चों को तालीम दे रहे थे के एक लड़के ने सलाम किया, उस्ताज़ साहब ने जवाब में फ़रमाया “जीते रहो” इस पर आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने फ़रमाया ये तो जवाब न हुआ “व अलैकुमुस्सलाम कहना चाहिए था” आप के इस जज़्बए इज़हार पर आप के उस्ताज़ बे हद मसरूर हुए और आप को बड़ी नेक दुआओं से नवाज़ा क़ुर्बान जाईये इब्तिदाए शुरू उमर ही में इस्लाम का कितना बुलंद फ़िक्रों शऊर अता हुआ था । (मुजद्दिदे इस्लाम अज़ मौलाना नसीम बस्तवी मतबूआ लाहौर)

तुम आदमी हो या कोई जिन्न

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी खुद फ़रमाया करते थे के मेरे उस्तादे मुहतरम जिन से में इब्दिताई किताबें पढता था, जब मुझे सबक पढ़ा दिया करते तो एक दो मरता किताब देख कर में किताब को बंद कर देता, जब सबक सुनते हर्फ़ बा हर्फ़ लफ्ज़ बा लफ्ज़ सुना देता, रोज़ाना ये हालत देख कर सख्त तअज्जुब करते एक दिन मुझ से कहने लगे के अहमद मियां, ये तो बताओ के तुम आदमी हो या कोई जिन्न? के मुझ को पढ़ाने में देर लगती है और तुम को याद करने में देर नहीं लगती, में ने अर्ज़ की “खुदा का शुक्र है में इंसान ही हूँ अल्लाह पाक का फ़ज़्लो करम शामिल हाल है।

साड़े तीन साल की उमर में अरबी में गुफ्तुगू

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी इरशाद फरमाते हैं में अपनी मस्जिद के सामने खड़ा था उस वक़्त मेरी उमर साड़े तीन साल की होगी, एक साहब अहले अरब के लिबास में मलबूस जलवा फ़रमा हुए, ये मालूम होता था के अरबी हैं, उन्होंने मुझ से अरबी ज़बान में गुफ्तुगू फ़रमाई में ने फसीह अरबी में उन से गुफ्तुगू की, उस बुज़रुग हस्ती को फिर कभी न देखा ।

(हयाते आला हज़रत अज़ मलिकुल उलमा ज़फरुद्दीन बिहारी मतबूआ नफीस ऑफसेट पिरेस दिल्ली)

चार सार की उमर में खत्मे कुरआन शरीफ

आप ने अपनी चार साल की नन्नही यानि छोटी सी उमर में जब के उमूमन दूसरे बच्चे इस उमर में अपने वुजूद से भी बे खबर रहते हैं कुरआन मजीद ख़त्म कर लिया। (सवानेह आला हज़रत अज़ अल्लामा बदरुद्दीन अहमद क़ादरी मतबूआ सुखर)

छेह 6, साल की उमर में पहली तकरीर पुर तनवीर

छेह 6, साल की उमर शरीफ में रबीउल अव्वल के मुबारक महीने में मिम्बर पर जलवा अफ़रोज़ हुए और एक बहुत बड़े मजमे के सामने आप ने पहली तकरीफ़ फ़रमाई, जिस में कमो बेश दो घंटे इल्मो इरफ़ान के दरियाए बहाए और सरवरे आलम हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़िक्रे विलादत के बयान की खुशुबू से अपनी ज़बान को मुअत्तर फ़रमाया, सामईन आप के उलूमो मआरिफ़ से लबरेज़ बयान को सुनकर वज्द में आ गए और तस्वीरें हैरत बन गए के उन के सामने एक कम सिन बच्चे ने मज़हबी दानिशमंदी की वो माया नाज़ बातें बयान कीं जो बड़े बड़े साहिबाने अक्लो होश के लिए बाइसे सद रश्क हैं, हकीकत ये है के रब्बुल आलमीन अपने जिस बन्दे को अपनी मारफत की दौलत से सरफ़राज़ करना चाहता है उसकी हयाते पाक की एक एक घड़ी और हर साअत में ज़हूर पज़ीर होने वाले वाक़िआत आम इंसानो के फ़हम और इदराक से बाहर होते हैं, लेकिन जिन को खुदा वनदे खुद्दूस ने बसारत व बसीरत दोनों ही की रौशनी अता फ़रमाई है वो खूब समझते हैं के ख़ासाने खुदा के सीने उलूमो मारफत के लिए हमेशा खुले रहते हैं और उन के लिए बचपन, जवानी, बुढ़ापा, कोई दौर कोई ज़माना रुकावट नहीं बन सकता । (मुजद्दिदे इस्लाम अज़ मौलाना नसीम बस्तवी मतबूआ रज़ा अकेडमी मुंबई)

आठ साल की उमर में तहरीरी मसअला

आप की उमर शरीफ अभी सिर्फ आठ साल ही की थी के वालिद साहब की गैर मौजूदगी में कहीं से वरासत का एक सवाल आ आ गया, आप ने उस का जवाब तहरीर फ़रमाया, जब वालिद साहब तशरीफ़ लाए तो देख कर वालिद साहब ने फ़रमाया, “मालूम होता है के ये मसला अम्मन मियां ने लिखा है उनको अभी न लिखना चाहिए मगर हमें इस जैसा कोई बड़ा लिख कर दिखाए तो हम जाने।

आठ साल की उमर में अरबी तस्नीफ़

आप ने आठ साल की उमर में फन्ने नोह की मश्हूरो मारूफ किताब “हिदायतुन नोह” पढ़ी और खुदा दाद इल्म के ज़ोर का ये आलम था के इस छोटी सी उमर में “हिदायतुन नोह” की शरह अरबी ज़बान में लिखी।

तुम मुझ से पढ़ते नहीं पढ़ाते हो

शायद दस साल की उमर शरीफ में जब के आप अपने वालिद माजिद साहब से “मुसल्लाबुस सुबूत” पढ़ रहे थे के वालिद साहब का तहरीर करदह ऐतिराज़ व जवाब पर नज़र पढ़ी जो आप ने “मुसल्लाबुस सुबूत” पर किया था, आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने इस ऐतिराज़ को खत्म किया और मतन की ऐसी तहक़ीक़ फ़रमाई के सिरे सी ऐतिराज़ ही न होता था, जब पढ़ाते वक़्त वालिद साहब की नज़र आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के लिखे हुए हाशिये पर पड़ी इतनी मसर्रत हुई के उठकर सीने से लगा लिया और फ़रमाया “अहमद रज़ा! तुम मुझ से पढ़ते नहीं हो बल्के पढ़ाते हो।

ये हैं आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी! का खुदा दाद इल्म के हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने सच्चे नाइब को पैदा होते ही अपने इल्म का सच्चा वारिस बना दिया, “अल उलमा वरासतुल अम्बिया” का मिस्दाक़ बरेली शरीफ का आफताब, चौदवी सदी का मुजद्दिद जिस ने हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सच्ची तालीम और नूरे शरीअत से रोशन मुनव्वर कर दिया।

"बचपन में तकवाओ परहेज़गारी" 

मुहाफिज़ते नमाज़

अल्लामा हसनैन रज़ा खान रहमतुल्लाह अलैह लिखते हैं के उन के हम उमरों से और बाज़ बड़ों के बयान से मालूम हुआ है के वो इब्तिदा शुरू शऊरी ही से नमाज़े बा जमात के सख्त पाबंद रहे गोया बालिग होने से पहले ही वो अस्हाबे तरतीब के ज़ैल में दाखिल हो चुके थे और वक़्ते वफ़ात तक साहिबे तरतीब ही रहे । (सीरते आला हज़रत अज़ अल्लामा हसनैन रज़ा खान मतबूआ क़ुतुब खाना अमजदिया दिल्ली)

बचपन से ही रोज़ा रखना शुरू कर दिया

जब बचपन में आप ने पहला रोज़ा रखा तो रोज़ा कुशाई की तक़रीब बड़ी धूम धाम से हुई इस का नक्शा हज़रत अल्लामा हसनैन रज़ा खान रहमतुल्लाह अलैह यूं खींचते हैं:

सारे खानदान और हल्काए अहबाब को बुलाया गया, खाने दाने पके, रमज़ानुल मुबारक गर्मी में था और आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह कम उमर थे, मगर आप ने बड़ी ख़ुशी से पहला रोज़ा रखा था, ठीक दोपहर में चेहरा मुबारक पर हवाईयां उड़ने लगी, आप के वालिद माजिद ने देखा तो उन्हें कमरे में ले गए और अंदर से दरवाज़ा बंद कर के आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह को फीरनी का एक ठंडा प्याला उठा कर दिया और फ़रमाया के खालो! आप ने फ़रमाया मेरा तो रोज़ा है, उन्होंने फ़रमाया के बच्चों के रोज़े यूं ही हुआ करते हैं कमरा बंद है न कोई आ सकता है न देख सकता है आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैह ने अर्ज़ किया के “जिस का रोज़ा रखा है वो तो देख रहा है, इस बात पर वालिद साहब आबदीदा हो गए, और खुदा का शुर्क अदा किया के खुदा के वादे को ये बच्चा कभी फरामोश न करेगा, जिस को भूक प्यास की शिद्दत कमज़ोरी और छोटी सी उमर में भी हर फ़र्ज़ की फ़र्ज़ीयत से पहले वफाए अहिद का इतना लिहाज़ो पास है।

बचपन में निगाह की हिफाज़त

आप की बचपन ही से ये आदत रही के अजनबी औरतें अगर नज़र आ जातीं तो कुर्ते के दमन से अपना मुँह छुपा लेते, आप की उमर शरीफ जबके सिर्फ चार साल की थी एक दिन बड़ा सा कुरता ज़ेबेतन किए हुए दौलत कदे से बाहर तशरीफ़ लाए तो आप के सामने से चंद बाज़ारी तफाइफें गुज़रीं जिन्हें देखते ही आप ने कुर्ते का दमन चेहरे पर डाल लिया, ये हालत देख कर उन से एक औरत बोली, “वाह मियां साहबज़ादे! आँखें ढक लीं और सत्र खोल दिया” आप ने इसी आलम में बगैर उनकी तरफ निगाह डाले हुए बरजस्ता जवाब दिया “जब आंख बहिक्ति है तो दिल बहिकता है और जब दिल बहिकता है तो सतर बहिकता है”,
आप के इस आरिफाना जवाब से वो सकते में आ गईं, आप के इस मुबारक अमल और हैरत अंगेज़ जवाब के पेशे नज़र ये सवाल पैदा होता है के जब आप ननही छोटी सी उमर में इस कदर फ़िक्रों शऊर रखते थे तो फिर दामन के बजाए अपने हाथों ही से क्यों न आँखें छुपा लें के इस सूरत में अपना सतर बे पर्दा न होता और मकसद भी हासिल रहता, लेकिन थोड़ी सी तवज्जुह के बाद ये अम्र वाज़ेह हो जाता है के अगर आप हाथों ही से ऑंखें छुपा लेते तो उस तवाइफ़ का मसखरा आमेज़ सवाल न होता और न वो उसको नसीहत आमोज़ जवाब मिलता जो आप ने दिया और न गुज़रने वाले दूसरे सामईन को वो सबक मिलता जो बसीरत अफ़रोज़ है, फिर आप ने बिल क़स्द वो तरीका इख़्तियार फ़रमाया बल्के मिन जानिब अल्लाह! गैर इरादी तौर पर आप ने दामन से ऑंखें छुपाईं के बचने की अदा यूं ही हुआ करती है ये और बात है के इस छोटी सी अदा में इलमुन नफ़्स के हक़ाइक़ पोशीदह थे। (सवानेह आला हज़रत अज़ अल्लामा बदरुद्दीन अहमद क़ादरी मतबूआ सुखर)

यक्ताए रोज़गार

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी का बचपन शरीफ तक्वा परहेज़गारी में बे मिसाल था, आप रदियल्लाहु अन्हु अपने बचपन में भी यक्ताए रोज़गार थे, बरेली शरीफ में एक बहुत बड़े ज़मीन्दार हाजी मुहम्मद शाह खान साहब रहते थे जो आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी से उमर में बड़े थे, एक बार ये आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के दरवाज़ेह की जारुबकशी यानि झाड़ू दे रहे थे, लोगों ने पूछा के क्या बात है इतने बड़े आदमी हो कर ये क्या कर रहे हैं, हाजी साहब ने जवाब दिया उमर में हुज़ूर से बड़ा हूँ, उनका बचपन देखा, जवानी देखि और अब बुढ़ापा देख रहा हूँ, हर हाल में यक्ताए रोज़गार ज़माना पाया तब हाथ में हाथ दिया है, बुढ़ापे में तो हर कोई बुज़रुग हो जाता है, इन्हें बचपन में भी बे मिसाल यक्ताए रोज़गार देखा । (फकीहे इस्लाम अज़ डाक्टर हसन रज़ा आज़मी मतबूआ कराची)

बग़दाद की सिम्त का अदब

छेह 6, साल की उमर में आप ने मालूम कर लिया था के बग़दाद शरीफ किधर है, फिर उस वक़्त से दमे आखिर तक बगदाद शरीफ की जानिब पाऊं नहीं फैलाए।

"बचपन में औलियाए किराम की तवज्जुह का मर्कज़"

तुम बहुत बड़े आलिम बनोगे

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के भांजे जनाब अली मुहम्मद खान साहब फरमाते हैं के वालीदह साहिबा फरमाती हैं एक रोज़ किसी ने दरवाज़े पर आवाज़ दी “आला हज़रत” (उस वक़्त आप की उमर दस साल की थी) बाहर तशरीफ़ ले गए देखा के के एक बुज़रुग फ़क़ीर मंश खड़े हैं आप को देखते ही फ़रमाया: “आओ” आप तशरीफ़ ले गए, सर पर हाथ फेरा और फ़रमाया तुम बहुत बड़े आलिम बनोगे।

जभी तो, जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब फरमाते हैं के एक मर्तबा मुहल्लाह सौदा गिरान की मस्जिद के करीब आप के बचपन ही के ज़माने में एक बुज़रुग से मुलाकात हुई उन्होंने आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी को सर से पाऊं तक बा गौर देखा और कई बार देखा फिर फ़रमाया तुम मौलाना रज़ा अली के कौन हो? तो आप ने जवाब दिया “में उनका पोता हूँ” फ़रमाया “जभी तो” और फ़ौरन तशरीफ़ ले गए।

सुनता है

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी फरमाते हैं में एक रोज़ हकीम वज़ीर अली के यहाँ करीब दस बजे दिन के जा रहा था, मेरी उमर उस वक़्त जिलानी मियां (आला हज़रत के पोते और इब्राहीम रज़ा खान के भाई) के बराबर थी (यानि दस साल) के सामने से एक बुज़रुग सफ़ेद रेश निहायत शकील वजीह तशरीफ़ लाए और मुझ से फ़रमाया सुनता! है बच्चे आज कल अब्दुल अज़ीज़ है इस के बाद अब्दुल हमीद इस के बाद अब्दुर रशीद यानि क़ुत्बे वक़्त और फ़ौरन नज़र से गाइब हो गए चुनांचे उस वक़्त तक उन बुज़रुग का कौल बिलकुल मुताबिक हुआ।

अल्लाह करम करे करम

आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी अपने बचपन का वाक़िआ यूं बयान फरमाते हैं, बरेली शरीफ में एक मजज़ूब बशीरुद्दीन साहब अख़वंद ज़ादा की मस्जिद में रहा करते थे, जो कोई उन के पास जाता कम से कम पचास गालियां सुनाते, मुझे उनकी खिदमत में हाज़िर होने का शोक हुआ, मेरे वालिद माजिद की मुमानिअत, के कहीं बाहर बगैर आदमी के साथ लिए ना जाना, एक रोज़ रात के ग्यारह 11, बजे अकेला उन के पास पंहुचा और फर्श पर जा कर बैठ गया, वो हुजरा (यानि मस्जिद के मुत्तसिल एक छोटा कमरा) में चार पाई पर बैठे थे, मुझ को बागोर पंदिरा बीस मिनट तक देखते रहे, आखिर मुझ से पूछा साहब ज़ादे! तुम मौलवी रज़ा अली के कौन हो? मेने कहा में उन का पोता हूँ, फ़ौरन वहां से झपटे और मुझ को उठा कर ले गए और चार पाई की तरफ इशारा कर के फ़रमाया: आप यहाँ तशरीफ़ रखो, पूछा क्या मुकदमा के लिए आए हो? मेने कहा: मुकदमा तो है लेकिन में इस लिए नहीं आया हूँ, में सिर्फ दुआए मगफिरत के वास्ते हाज़िर हुआ हूँ,करीब आधे घंटे तक बराबर कहते रहे अल्लाह करम करे, अल्लाह करम करे, अल्लाह करम करे, अल्लाह करम करे, उस के बाद मेरे मंझले भाई (अल्लामा हसन रज़ा खान साहब) इन के पास मुकद में की गरज़ से हाज़िर हुए, इन से खुद ही पूछा, क्या मुकद में के लिए आये हो? उन्होंने अर्ज़ किया जी हाँ! फ़रमाया के मौलवी साहब से कहना कुरआन शरीफ में ये भी तो है, “अल्लाह की मदद और जल्द आने वाली फतह” बस दूसरे दिन ही मुकदमा फतह हो गया। (मलफ़ूज़ाते आला हज़रत)

तकमीले मुरव्वजा उलूम

उर्दू फ़ारसी की इब्तिदाई किताबें आप रदियल्लाहु अन्हु ने हज़रत मौलाना मिर्ज़ा गुलाम कादर बेग कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी से पढ़ीं, बाद में इन्ही “मौलाना मिर्ज़ा गुलाम कादर बेग साहब” ने आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी से “हिदाया” का सबक पढ़ा, गोया आप इन के शागिर्द भी थे और उस्ताद भी,

मलिकुल उलमा ज़फरुद्दीन बिहारी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी लिखते हैं, में ने “जनाब मौलाना मिर्ज़ा गुलाम कादर बेग साहब” मरहूम व मगफूर को देखा था, गोरा चिट्टा रंग, उमर तकरीबन 80, साल दाढ़ी सर के बाल एक एक कर के सफ़ेद, इमामा बांधे रहते, जब कभी आला हज़रत कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के पास तशरीफ़ लाते तो आप बहुत ही इज़्ज़तो तकरीम के साथ पेश आते, एक ज़माने में जनाब मिर्ज़ा साहब! का क़याम कलकत्ता में था, वहां से अक्सर सवालात जवाब तलब भेजा करते, “फतावा रज़विया” में अक्सर इस्तिफता उनके हैं, इन्हीं के एक सवाल के जवाब में आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु ने रिसालाए मुबारका “तजल्लियुल यकीन बी अन्ना नबीईना सय्यदुल मुर्सलीन” तहरीर फ़रमाया: आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु इन की बात बहुत माना करते, जब कोई अहम काम समझा जाता लोग मौलाना मिर्ज़ा गुलाम कादर बेग! को सिफारशी लाते, इन की सिफारिश कभी राईगां नहीं जाती थी, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु इन का बहुत ज़ियादा ख्याल करते थे, और जो कुछ अर्ज़ करते इन की अर्ज़ कबूल करते, बड़े साहिबे तक्वा और आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु के फिदाई और जानिसार थे

इस के बाद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु ने अपने वालिद माजिद ताजुल उलमा सनादुल मुहक़्क़िक़ीन हज़रत मौलाना शाह नकी अली खान साहब रहमतुल्लाह अलैह से मुन्दर्जा ज़ैल इक्कीस उलूम पढ़े,

  1. इल्मे कुरआन
  2. इल्मे तफ़्सीर
  3. इल्मे हदीस
  4. उसूले हदीस
  5. कुतुबे फ़िक़्ह हनफ़ी
  6. कुतुबे फ़िक़्ह शाफ़ई व मालकी व हम्बली
  7. उसूले फ़िक़्ह
  8. जदले मुहज़्ज़ब
  9. इल्मुल अक़ाइद वल कलाम
  10. इल्मे नोह
  11. इल्मे सर्फ़
  12. इल्मे मुआनी
  13. इल्मे बयान
  14. इल्मे बदियी
  15. इल्मे मंतिक
  16. इल्मे मुनाज़िरह
  17. इल्मे फलसफा
  18. इब्तिदाई इल्म तकसीर
  19. इब्तिदाई इल्म हय्यत
  20. इल्मे हिसाब, जमा तफ़रीक़, ज़र्ब तकसीम
  21. इब्तिदाई इल्मे हिंदसा

असातिज़ाए किराम

आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु के असातिज़ा की फहरिस्त बहुत मुख़्तसर है:
(1) आप के वालिद माजिद रईसुल मुता कल्लिमीन हज़रत मौलाना शाह नकी अली खान रहमतुल्लाह अलैह, और इन के अलावा पांच नुफ़ूसे कुदसिया हैं जिन से आप को निस्बते तलम्मुज़ शागिर्दी हासिल है,
(2) आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु के वो उस्ताज़ जिन से इब्तिदाई शुरू की किताबें पढ़ीं,
(3) जनाब मौलाना मिर्ज़ा गुलाम कादर बेग कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी, (जिन से आप ने मीज़ान मुन्शाअब तक की तालीम हासिल की)
(4) हज़रत मौलाना अब्दुल अली साहब रामपुरी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी, (इन से आला हज़रत ने शरह चिगमिनि के चंद अस्बाक पढ़े)
(5) आप के पिरो मुर्शिद हज़रत सय्यद शाह आले रसूल मारहरवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी, आप से तसव्वुफ़, तरीकत, की तालीम हासिल
की,
(6) सालारे खानदाने बरकातिया सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह, आप से इल्मे तकसीर, इल्मे जफ़र हासिल किए,
(7) जब आप ज़ियारते हरमैन शरीफ़ैन के लिए मक्का मुकर्रमा तशरीफ़ ले गए तो दर्ज ज़ैल तीन शियूख से भी सनादे हदीस व फ़िक़्ह हासिल
फ़रमाई,
(1) शैख़ अहमद बिन ज़ैन दहलान मक्की रहमतुल्लाह अलैह
(2) शैख़ अब्दुर रहमान सिराज मक्की रहमतुल्लाह अलैह
(3) शैख़ हुसैन बिन सालेह मक्की रहमतुल्लाह अलैह।

दस्तारे फ़ज़ीलत

सिर्फ तेरह 13, साल दस 10, महीने चार दिन की उमर शरीफ में 14, शआबानुल मुअज़्ज़म 1286, हिजरी मुताबिक 19, नवम्बर 1869, ईसवी को आप फ़ारिगुत तहसील हुए और दस्तारे “फ़ज़ीलत सजाई गई”, फरागत के बाद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! खुद फरमाते हैं,

और ये वाक़िआ निस्फ़ शआबानुल मुअज़्ज़म 1286, हिजरी मुताबिक 19, नवम्बर 1869, ईसवी का है उस वक़्त में “तेराह साल, दस महीने, चार दिन” का था, उसी रोज़ मुझ पर नमाज़ फ़र्ज़ हुई और मेरी तरफ शरई एहकाम मुतवज्जेह हुए थे, और ये नेक फाल है के बी हमदी ही तआला मेरी तारीखे फरागत कलमाए “गफूर” (बख्श ने वाला) और “तावीज़” पनाह में लेना है, बख्शने वाले रब से उम्मीद की जाती है के वो मुझे बख्शेगा और हर मकरूह से बचा कर अपनी पनाह में लेगा।
(तजल्लियाते इमाम अहमद रज़ा कारी अमानत रसूल रज़वी मतबूआ मक्तबा अल मुस्तफा बरेली शरीफ यूपी)

पौने चौदह साल की उमर में पहला फतवा

उसी दिन रज़ाअत के एक मसले का जवाब लिख कर वालिद माजिद साहब क़िबला की खिदमते आली में पेश किया, जवाब बिलकुल दुरुस्त था आप के वालिद माजिद ने आप के जवाब से आप की ज़हानत व फिरासत का अंदाज़ा कर लिया और उसी दिन से फतवा नवेसी का काम आप को सौंप दिया चुनांचे अरसा दराज़ के बाद एक बार एक साइल ने आप से सवाल किया के “अगर बच्चे के नाक में दूध चढ़ कर हलक में उतर जाए तो रज़ाअत साबित होगी या नहीं”,?

आप ने जवाब दिया “मुँह या नाक से औरत का दूध बच्चे के पेट मे पहुंचेगा तो हुरमते रज़ाअत लाएगा” और ये फ़रमाया ये वही फतवा है जो 14, शआबानुल मुअज़्ज़म 1286, हिजरी मुताबिक 19, नवम्बर 1869, ईसवी में इस फ़क़ीर ने लिखा और इसी 14, शआबानुल मुअज़्ज़म में मंसबे इफ्ता अता हुआ, और इसी तारिख से बी हम्दिही तआला नमाज़ फ़र्ज़ हुई, और पैदाइश 10, शव्वालुल मुकर्रम 1272, हिजरी बरोज़ शम्बा यानि हफ्ता वक़्ते ज़ोहर मुताबिक चौदह जून मंसबे इफ्ता मिलने के वक़्त फ़क़ीर की उमर “13, साल 10, महीने 4, दिन की थी जब से अब तक बराबर खिदमते दीन जारी है अल हम्दुलिल्लाह।
मलिकुल उलमा ज़फरुद्दीन बिहारी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के नाम एक मकतूब (मुहर्ररह 7, शआबानुल मुअज़्ज़म 1336, हिजरी मुताबिक 1918, ईसवी) आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! तहरीर फरमाते हैं अल हम्दुलिल्लाह 14, शआबानुल मुअज़्ज़म 1286, हिजरी को “तेराह साल, दस महीने, चार दिन” की उमर में पहला फतवा लिखा, अगर सात दिन और ज़िन्दगी बिल खेर है तो इस शाबान 1336, हिजरी को इस फ़क़ीर को फतावा लिखते हुए अल हम्दुलिल्लाह, पूरे पचास साल होंगे, इस नेमत का शुक्र फ़क़ीर क्या अदा कर सकता है।

मुस्तकिल फतवा नवेसी

“माहिरे रज़वियात” अल्लामा पिरोफ़ैसर मसऊद साहब तहरीर फरमाते हैं, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु ने “तेराह साल, दस महीने, चार दिन” की उमर में 14, शआबानुल मुअज़्ज़म 1286, हिजरी को अपने वालिद माजिद हज़रत मौलाना नकी अली खान रहमतुल्लाह अलैह की निगरानी में फतवा नवेसी का आगाज़ किया, सात साल के बाद तकरीबन 1293, हिजरी में फतवा नवेसी की मुस्तकिल इजाज़त मिल गई, फिर जब 1297, हजिरि में वालिद माजिद हज़रत मौलाना नकी अली खान रहमतुल्लाह अलैह का इन्तिकाल हुआ तो कुल्ली तौर पर मौलाना बरेलवी फतवा नवेसी के फ़राइज़ अंजाम देने लगे। (हयाते मौलाना अहमद रज़ा बरेलवी अज़ पिरोफ़ैसर मसऊद साहब)

तदरीस (तालीम देना)

फ़ारिगुत तहसील होने के बाद फतवा नवेसी के साथ साथ आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! तदरीस भी फरमाते रहे चुनांचे “अल कलिमतुल मुलहिमाह” में आप खुद फरमाते हैं: फ़क़ीर का दर्स बी हम्दिहि तआला 13, साल 10, महीने 4, दिन की उमर में खत्म हुआ, इस के बाद चंद साल तक तलबा को पढ़ाया । (हयाते मौलाना अहमद रज़ा बरेलवी अज़ पिरोफ़ैसर मसऊद साहब)

शादी मुबारक

तालीम मुकम्मल होने के बाद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की शादी का नंबर आया, आप का निकाह 1291, हिजरी में जनाब शैख़ फ़ज़्ल हुसैन साहब रामपुर की साहब ज़ादी “इरशाद बेगम” से हुआ, ये शादी मुसलमानो के लिए एक शरई नमूना थी, मकान तो मकान आप ने लड़की वाले के यहाँ भी खबर भिजवादी थी के कोई बात शरीअते मुतह्हरा के खिलाफ न हो, चुनांचे उन हज़रात ने गलत रस्मो रिवाज से इतना लिहाज़ किया के लोग उनकी दीनदारी और पासे शरीअत के काइल हो गए और बड़ी तारीफ की।

अहलिया मुहतरमा “इरशाद बेगम”

अल्लामा हसनैन रज़ा खान कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी “सीरते आला हज़रत” में लिखते हैं: के ये हमारी मुहतरमा “अम्मा जान” रिश्ते में आला हज़रत की फूफी ज़ादी थीं, नमाज़ रोज़ा की सख्ती से पाबंद थीं, निहायत खुश अख़लाक़, बड़ी सेर चश्म, इंतिहाई मेहमान नवाज़, निहायत मतीन व संजीदह बीबी थीं, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के यहाँ महमानो की बड़ी आमदो रफ़्त थी, ऐसा भी हुआ है के ऐन खाने के वक़्त ट्रेन से मेहमान उतर आए और जो कुछ खाना पकना था वो सब पक चुका था अब पकाने वालियों ने नाक बहुएं समेट लीं आप ने फ़ौरन मेहमानो के लिए खाना उतार कर बाहर भेज दिया और सारे घर के लिए दाल चावल या खिचड़ी पकने को रखवादी गई के इस का पकना कोई दुश्वार ना था, जब तक महमानो ने बाहर खाना खाया घर वालों के लिए भी खाना तय्यार हो गया, किसी को कानो कान खबर भी न हुई के क्या हुआ, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की ज़रूरी खिदमात वो अपने हाथ से अंजाम देती थीं, ख़ुसूसन आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के सर में तेल मलना ये उनका रोज़ मर्राह का काम था, जिस में कमो बेश आधा घंटा खड़ा रहना होता था, और इस शान से तेल ज़ज्ब किया जाता था के उन के लिखने में असलन फर्क न पड़े, ये अमल उन का रोज़ाना मुसलसल ता हयात आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! बराबर जारी रहा, सारे घर का निज़ाम और मेहमान नवाज़ी का अज़ीम बार बड़ी ख़ामोशी और सब्रो इस्तक़लाल से बर्दाश्त कर गईं, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के विसाल के बाद भी कई साल ज़िंदा रहीं मगर अब बा जुज़ यादे इलाही के उन्हें और कोई काम न रहा था।
आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के घर के लिए उन का इंतिख्वाब बड़ा कामयाब था अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की दीनी खिदमात के लिए जो आसानियाँ अता फ़रमाई थीं, उन आसानियों में एक बड़ी चीज़ अम्मा जान की ज़ाते गिरामी थी, हमारी अम्मा जान अपने देवरों और नंदों की औलाद से भी अपने बच्चों जैसी मुहब्बत फरमाती थीं घराने के अक्सर बच्चे उन्हें “अम्मा जान” ही कहते थे, अब कहाँ ऐसी हस्तियां रहमतुल्लाहि तआला अलैहा।

औलादे अमजाद

आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! को अल्लाह पाक ने सात औलादें अता फ़रमाई दो साहबज़ादे और पांच साहबज़ादियाँ,
साहबज़ादों के नाम ये हैं:

  1. हुज्जतुल इस्लाम हज़रत मौलाना मुहम्मद हामिद रज़ा खान रहमतुल्लाह अलैह
  2. सरकार मुफ्तिए आज़म हिन्द मौलाना मुहम्मद मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह

और साहबज़ादियों के नाम ये हैं,

  1. मुस्तफई बेगम
  2. कनीज़े हसन
  3. कनीज़े हुसैन
  4. कनीज़े हसनैन
  5. मुर्तज़ाई बेगम

रेफरेन्स हवाला

  • तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
  • सवानेह आला हज़रत
  • सीरते आला हज़रत
  • तज़किराए खानदाने आला हज़रत
  • तजल्लियाते इमाम अहमद रज़ा
  • हयाते आला हज़रत अज़
  • फाज़ले बरेलवी उल्माए हिजाज़ की नज़र में
  • इमाम अहमद रज़ा अरबाबे इल्मो दानिश की नज़र में
  • फ़ैज़ाने आला हज़रत
  • हयाते मौलाना अहमद रज़ा बरेलवी

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