सरकार मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

सरकार मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी (पार्ट- 3)

सायाए जुमला मशाइख या खुदा हम पर रहे
रहम फ़रमा आले रहमा मुस्तफा के वास्ते

ज़मीन साकिन है सूरज चाँद चलते हैं

उस ज़माने मे जब अमरीका वालों के चाँद पर जाने का चर्चा आम था, एक रोज़ गालिबन शाबान का महीना था, हुज़ूर शमशुल उलमा हज़रत अल्लामा मुफ़्ती शमशुद्दीन जाफरी रज़वी जौनपुरी रहमतुल्लाह अलैह और सदरुल उलमा हज़रत अल्लामा सय्यद गुलाम जिलानी साहब मेरठी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी और दूसरे उल्माए किराम हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह की बारगाह मे हाज़िर थे, चाँद सूरज वगेरा की बात चल रही थी, हज़रत ने फ़रमाया ज़मीन और आसमान दोनों साकिन हैं, और सूरज चाँद चलते हैं इस पर हज़रत अल्लामा सय्यद गुलाम जिलानी साहब मेरठी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने फ़रमाया क़ुरआन मजीद मे है “وَالشَّمۡسُ تَجۡرِىۡ لِمُسۡتَقَرٍّ لَّهَا ‌ؕ” तर्जुमा: यानि सूरज चल रहा है अपने मुस्तक़र मे तजरी से मालूम होता है के चलता है और ली मुस्तक़रिल लिहा से मालूम होता है के एक जगह ठहरा हुआ है और एक करार गाह मे ठहर जाना ये दोनों बातें कैसे सही होंगी? इस पर हज़रत ने फ़ौरन जवाब दिया के हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और हज़रत हव्वा अलैहिस्सलाम को फ़रमाया गया था: “وَلَكُمْ فِى ٱلْأَرْضِ مُسْتَقَرٌّ” तो क्या वो ज़मीन के एक ही हिस्से पर ठहरे रहते थे चलते नहीं थे, अपने मुस्तक़र मे रहने का मतलब ये है के जाए रफ़्तार से, बाहर नहीं होता, चलता है मगर अपने दाईराए हरकत मे, इस पर हज़रत अल्लामा मेरठी साहब क़िबला रहमतुल्लाह अलैह खामोश हो गए, आप के फ़िक़्ही महारत की तफ्सीली रौशनी के लिए आप के फतावा का मुताला ज़रूरी है जिस मे फ़िक्हा! के बड़े बड़े अनमोल जवाहर बिखरे पड़े हैं और आप की फुकहात की बोलती तस्वीर है।

आप की हक गोई शाने मोमिना

एक मर्दे मोमिन की शान ये है के वो बातिल से कभी नहीं डरता और तख़्ताए दार पर भी हक का ऐलान करता रहता है, कहते हैं के हक का कहना जब जुर्म हो जाए उस वक़्त एक हक बात कह देना सब से बड़ा जिहाद! है, जैसा के हदीस शरीफ मे है: के “ज़ालिम बादशाह के सामने कलमाए हक कहना अफ़ज़ल जिहाद है” लेकिन जिस ने हर दौर मे और हर हालत मे कलमाए हक का ऐलान किया हो, हक्को सदाकत का परचम बुलंद किया हो बल्के ज़िन्दगी के किसी भी लम्हे मे भी हक का दामन ना छोड़ा हो भला ऐसे हक गो की शान क्या होगी,

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह तो मोमिनो के सरदार हैं, अहले सुन्नत के ताजदार हैं, उनकी मोमिना शान हक गोई व बे खौफी का अंदाज़ा क्या लगाया जा सकता है, शुरू से आखिर तक ज़िन्दगी का हर लम्हा ऐलान हक ही गुज़रा है, नजदीयत व देओबंदीयत व दीगर फिरका बातिला की धज्जियां बिखेरने और बातिल परिस्तों की सरकूबी मे ही आप की उमर गुज़री है, शुधी तहरीक! हो या अंग्रेजी तहरीक क़ादियानियत या नीचीरियत, इन तमाम का भर पूर मुकाबला आप ने फ़रमाया और अपने फतावा से दीने हक और मज़हबे अहले सुन्नत की तर्जुमानी फ़रमाई और मुसलमानाने हिंदो पाक को दुश्मन ताकतों से बचाया,

आप के सामने कोई भी अपना या गैर, गैर शरई हरकत नहीं कर सकता था, या हक व सदाकत के खिलाफ कोई कलमा नहीं बोल सकता था, आप फ़ौरन उस का रद्द करते, आप के दरबार मे गैर मुस्लिम भी आते और अपने अक़ीदे के मुताबिक कुछ ऐसे अल्फ़ाज़ बोलते या कुछ ऐसी हरकतें करते जिन्हें वो सही समझते थे लेकिन जो इस्लामी उसूल और शरआ के खिलाफ होता फ़ौरन उस का रद्द करते,

हज़रत के पुराने खादिम नासिर मियां साहब! का बयान है के एक बार वो और हज़रत ट्रेन मे सफर कर रहे थे, इत्तिफाक से उस डब्बे मे कुछ मलेटरी के लोग थे, जो शराब पी रहे थे, हज़रत अपने बर्थ से सो कर उठे तो देखा और मना किया, वो नहीं माने तो जो उन का हेड सब का सरदार उसे बड़ी ज़ोर से डांटा और ऐसा ज़न्नाटे दार थप्पड़ रसीद किया के शराब की बोतल दूर जा गिरी और उस का मुँह घूम गया, नासिर मियां! घबरा गए या अल्लाह! ऐसा न हो के ये हज़रत! की गुस्ताखी करने लगें लेकिन वाह रे अल्लाह के शेर! ये तमाम गीदर खामोश हो गए और फिर उन्होंने हज़रत से माफ़ी मांगी।

नसबंदी हराम है

1976, या 77, ईस्वी का वो पुर फितन दौर जिस ने हिंदुस्तान के मुसलमानो को एक ऐसे भयानक तूफ़ान में खड़ा कर दिया था जहाँ से इस्लामियाने हिन्द के सफ़ीनाए ऐतिकाद के तख्ते टूटे हुए नज़र आ रहे थे, सऊदी रियाल और अमरीकी डॉलर हुकूमते वक़्त के टुकड़ों पर पलने वाले उलमा के कदमो में लग़्ज़िश आ गई थी और नसबंदी के जवाज़ पर मसनदे इफ्ता पर बैठने वाले मुफ्तियों ने फतवा सादिर कर दिया था रेडियों न्यूज़ चैनल अखबारात के ज़रिए खूब खूब प्रचार भी किया गया, हिंदुस्तान का मुस्लमान अब ऐसे मोड़ पर पहुंच चुका था जहाँ हर तरफ तारीकी ही तारीकी, ख़ामोशी ही ख़ामोशी, और तूफान ही तूफान था, पूरी मुस्लिम कौम एक ऐसे कारवां के तलाश में थी जो सहारा दे ईमान व ऐतिकाद की किश्ते वीरां को लाला ज़ार बनाए सब की निगाहें शहर इश्को मुहब्बत, पासबान नामूसे रिसालत बरैली की जानिब लगी हुई थीं, यका यक बरैली! का मर्दे मुजाहिद मुख़ालिफ़तों की तेज़ अँधियों में अपने इल्मी वकार की मशअल ले कर उठता है और बा मिस्दाक़ हदीस शरीफ: ज़ालिम बादशाह के सामने कलमए हक कहना अफ़ज़ल जिहाद है, ऐलान फरमा दिया: नसबंदी हराम है, नसबंदी हराम है, हराम है, मुल्क भर में पोस्टरों इश्तेहार के ज़रिए उसे फैलाया, हुकूमते वक़्त मुँह देखती रही खुदा का करना ऐसा हुआ के हज़रत की दुआ से वो हुकूमत ही ख़त्म हो गई।

तसव्वुफ़ का मसला

अल हाज मौलाना अब्दुल हादी साहब अफ़्रीकी! और सूफी इकबाल अहमद साहब नूरी ने हज़रत से दरयाफ्त किया के हुज़ूर! क्या नमाज़ में शैख़ का तसव्वुर किया जा सकता है? हज़रत ने फ़रमाया: नमाज़ में किसी का तसव्वुर करना ही है तो ताजदारे दो आलम हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तसव्वुर कीजिए, हाँ जिस तरह हालते नमाज़ में लोग इधर उधर का ख्याल करते हैं इसी तरह पीर का तसव्वुर भी आ जाए तो हर्ज नहीं, सुब्हानल्लाह! क्या एहतियात है इस जवाब में और साथ साथ रद्दे वहाबियत व देओबन्दियात भी, आप की तसव्वुफो तरीकत पर पूरी महारत का इल्म तो आप की तसानीफ़ ही से हो सकता है, आप की तसव्वुफ़ाना ज़िन्दगी अपने वालिद माजिद मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! के कदम बा कदम थी, और तसव्वुफ़ पर शोहरए अफाक किताब “मकालुल उर्फा” है के ऐन मुताबिक थी, साथ ही आप ने वालिद माजिद के रोज़ो शब् के मलफ़ूज़ात जो आप ही की तदवीन है इससे कामिल तौर पर हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह की मुतासव्वुफ़ाना ज़िन्दगी का पता चलता है,

आप की सियासी बसीरत

इस्लाम में दीन और सियासत अलग नहीं उल्माए हक वारीसाने रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम होने की बिना पर वारिसे सियासत इस्लामी भी हैं लेकिन इस का मतलब ये नहीं के हर जगह हर दौर या हर किसी भी हुकूमत में सियासत करते रहे महिज़ उहदा हासिल करने के लिए या अपनी गरज़ की खातिर दुनियावी इज़्ज़त व दौलत की खातिर जैसा के आज के मुस्लिम सियासत दान कर रहे हैं, हिंदुस्तान की तारीख में जब किसी फ़ित्ने ने मुसलमानो के खिलाफ सर उठाया उस का जिस सलीका मंदी और जुरअत व बेबाकी से मुकाबला किया है ये आप ही का हिस्सा है,

हिंदुस्तान की तारीख में 1857, ईस्वी से लेकर 1947, ईस्वी तक इंतिहाई धमाका खेज़ियों का दौर रहा है, जंगे अज़ीम, तक़सीमे हिंदुस्तान का मसला तहरीके आज़ादी ये वो मसाइल थे जिन में अरबाबे फ़हम व बसीरत तो दरकिनार अवामुन नास को भी कश्मकश से दोचार होना पड़ा जिस की पादाश में कई तहरीकों ने जन्म लिया, नतीजा ये हुआ के कौम मुख्तलिफ जमातों में बिखर गई तकरीबन 15, 16, पार्टियां और तहरीकें मंसए शूहूद पर आयीं, दानिश गाहें, तुर्बत गाहें, यूनिवर्सिटियां, कोलिज़ सियासी अखाड़े बन गए तमाम तहरीकों ने एक दूसरे के खिलाफ अलमे बगावत बुलंद किया कुछ तहरीकों ने मुसलमानो की गारत गिरी को अपना बुनियादी मकसद करार दिया जिस के लिए उन्होंने मुख्तलिफ रूप इख़्तियार किए, मुसलमानो को इस्लाम से बरगश्ता करने के लिए कभी शुधी तहरीक! की शक्ल में साज़िश की जाती और कभी संगठन की सूरत में, मुसलमानो का खून बहाने के लिए कभी अज़ान का बहाना बनाया जाता और कभी गए की क़ुरबानी का सहारा लिया जाता, सरकारे अबद करार रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखियां, मस्जिदों का इन्हिदाम और कुरआन पाक की तौहीन अक्सर तहरीकों के रोज़ मर्रा का मामूल था, हिन्दू मुस्लिम इत्तिहाद के अकबरी नारे अक्सर लगाए जा रहे थे, और इन्हें बा हम मिलाने की भर पूर कोशिश की जा रही थी, इस नज़रिए के अलम्बरदार कुछ यहाँ नाम निहाद उलमा भी थे जो देओबंदी की अज़ीम दरस गाह से इस गांधी मज़हब की हिमायत में हिन्दुओं के साथ इस्लामी मसावात का दरस दे रहे थे,
बीसवीं सदी में जब अकबरी ज़हनियत रखने वाले नाम निहद उलमा ने एक कोमी नज़रिया पेश किया तो जिन उल्माए हक ने शिद्द्त से इस की मुखालिफत की इन में हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह का नाम काबिले ज़िक्र है हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह को ये सियासी बसीरत वालिद गिरामी आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! से वरासत में मिली थी जिस की वजह से आप ने इन नाम निहाद उलमा की बिसात सियासत को उलट कर रख दिया और तहरीके आज़ादी के ज़माने में आप ने जो अपना सियासी नज़रिया पेश किया वो अपनी नज़ीर आप है,
हज़रत एक साहिबे फ़िक्रों बसीरत मुदब्बिर सियासत दान थे, हज़रत की सियासत बसीरत का अंदाज़ा लगाने के लिए इन किताबों का मुताला ज़रूरी है, “तरकुल हुदा वल इरशाद” “मुकदमए दवामुल ऐश”।

ज़ोके शेरो शायरी

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह अपने वक़्त के उस ताज़ुश शोरा और फन्ने शायरी में कामिलो अकमल हैं आप के अक्सर अशआर हम्द, नात कसीदह व मनकबत और रुबाइयात पर फैले हुए हैं, जो अरबी, फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, में पूरी इनफिरा दीयत के साथ आप के दीवान “सामाने बख़्शिश” में छप कर आम हो चुके हैं, और आप पर हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फैज़ान ही कहा जा सकता है के एक ऐसा इंसान जो शबो रोज़ सफर में हो घर पर हो तो इफ्ता की ज़िम्मेदारी इस के अलावा दीगर अहम् और दीनी ज़रूरतें आखिर कब और कैसे आप को सुकून का वक़्त मिलता जिसे आज हम उनकी नातिया शायरी का एक मुकम्मल दीवान देख रहे हैं आप ने सब ही मोज़ोआत पर कलम उठाया है और हर एक में रंग तग़ज़्ज़ुल झिलमिला रहा है और तड़प व खटक के साथ साथ इस कदर रस, और नग़्मगी है के पढ़ने और सुनने वाले मसहूर मस्त हो जाते हैं और उन पर कैफियत तारी हो जाती है, शेरो अदब में आप ने अपना तखल्लुस अपने पीरो मुर्शिद के तखल्लुस पर “नूरी” रखा और इसी से शेरी दुनिया में जाने पहचाने जाते हैं, एक बार हज़रत! बरैली के किसी गाओं में तशरीफ़ ले गए थे, साहिबे खाना की 8, या 9, बरस की बच्ची के हाथ में किताब का एक वर्क था जिस पर मिर्ज़ा दाग देहलवी की एक ग़ज़ल थी जिस का एक मिसरा इस तरह था: “कौन कहता है ऑंखें चुरा कर चलें” हज़रत को मिसरा बहुत पसंद आया और वहीँ बैठे बैठे थोड़ी देर में पूरी नात शरीफ कहदी जिस का पहला मिसरा ये है:

कौन  कहता है ऑंखें चुरा कर चलें
कब किसी से निगाहें बचा कर चलें 

ये नात शरीफ 134, अशआर पर मुश्तमिल है इस तरह के बुशुमार अशआर आप के दीवान में मौजूद हैं मुकम्मल और पूरी तफ्सील के लिए “सामाने बख़्शिश” का मुतालआ करें।

तू श्मए रिसालत है आलम तेरा परवाना
तू माहे नुबुव्वत है ऐ जलवाए जाना ना

सरशार मुझे करदे इक जामे लबा लब से
ता हश्र रहे साकी आबाद हो मखाना

आबाद इसे फरमा वीरां है दिले नूरी
जलवे तेरे बस जाएं आबाद हो वीराना

आप की तसानीफ़

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह एक अज़ीम मुहक्किक और मुसन्निफ़ भी हैं, आप की तहरीर में आप के वालिद माजिद मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! के उस्लूब की झलक और ज़र्फ़ निगाही नज़र आती है, तहक़ीक़ का कमाल भी नज़र आता है, और तद कीक का जमाल भी, फतावा के ज़ुज़ीयत पर उबूर का जलवा भी नज़र आता है, और हज़रत अल्लामा शामी के तफक्कोह! का अंदाज़ भी, तसानीफ़ में इमाम ग़ज़ाली की तहक़ीक़ और इमाम राज़ी की तहक़ीक़, और इमाम जलालुद्दीन सीयुती की तलाशो जुस्तुजू की जलवागरी नज़र आती है आप की बाज़ तसानीफ़ के नाम ये हैं: (1) हाशिया दवामुल ऐश, (2) वकाया अहले सुन्नाह, (3) अल मलफ़ूज़ अव्वल ता चाहरम, (4) सैफुल जिहाद, (5) नुरुल इरफ़ान, (6) अल मोतुल अहमर, (7) मसला अज़ाने सानी, (8) हाशिया अल इस्तिमदाद, (9) तरकुल हुदा वल इरशाद, (10) मसाइले समआ, (11) हाशिया फतावा रज़विया जिल्द सोम, (12) फतावा मुस्तफ़वीया अव्वल दोम, (13) सामाने बख़्शिश।

कशफो करामात

कशफो करामात के सिलसिले में एक मोमिने कामिल की सब से बड़ी करामात ये है के वो शरीअते मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर सख्ती से आमिल हो और इस राह का हर सख्ती से आमिल हो और इस राह की हर सख्ती को सब्रो शुक्र से अदा करता हो, इस सिलसिले की अहम कड़ी हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह की पूरी ज़िन्दगी है, आप की ज़िन्दगी का हर लम्हा करामत ही करामत है, अगर आप के जुमला करामातों का ज़िक्र किया जाए तो दफ्तर दरकार हो बा तौर तबर्रुक कुछ करामत बयान करते हैं।

हुज़ूर मुफ़्ती आज़म हिन्द का इल्मे ग़ैब और इल्मे ग़ैब की दलील अपनी करामात से दी

सुल्तानुल मशाइख़ हज़रत सय्यदना ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया महबूबे इलाही रादियल्लाहु अन्हु के उर्स शरीफ में शिरकत के लिए हुज़ूर मुफ़्ती आज़म हिन्द दिल्ली तशरीफ़ ले गए तो कूचाए जिलान में क़याम किया वहाँ एक बद अक़ीदा मुल्ला आप से इल्मे ग़ैब के मसले पर उलझ पड़ा साहिबे खाना जनाब अशफ़ाक़ अहमद ने आप से अदब से गुज़ारिश की के हुज़ूर ये कज बहस है इन पर किसी बात का असर नहीं होता आपने अपने मेज़बान से कहा ये इस वक़्त तुम्हारे घर तशरीफ़ लाए हुए हैं इनके मुतअल्लिक़ तुम्हे कोई सख्त बात न कहना चाहिए ये मौलवी साहब ने आज तक किसी की बात सुनी ही नहीं इस लिए असर भी क़ुबूल नहीं किया| ये तो सिर्फ अपनी बात सुनते रहे हे और वो भी अनसुनी कर दी जाती है आज में इनकी बाते तवज्जोह से सुनुँगा हाज़िरीन भी ख़ामोशी से सुने|

(वो बद अक़ीदा) मौलवी सईदुद्दीन अंबालवी ने सवा घंटे तक ये बात साबित करने की कोशिश की के नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इल्मे ग़ैब नहीं था जब वो थक हार कर खामोश हो गया तो आपने फ़रमाया के अगर कोई दलील तुम अपने मौक़िफ़ के ताईद में बयान करना भूल गए हो तो याद करलो मौलवी साहब फिर जोशे तक़रीर में आ गए और फिर आधे घंटे तक बोलने के बाद कहा के ये बात अच्छी तरह साबित हो गई के हज़रत मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इल्मे ग़ैब नहीं था | हज़रत ने फ़रमाया तुम अपने बातिल अकीदे से फ़ौरन तौबा कर लो हुज़ूर रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अल्लाह तआला ने ग़ैब का इल्म अता फ़रमाया था आप उसके रद में वो सब कुछ कह चुके है जो कह सकते थे अब अगर ज़ेहमत न हो तो मेरे दलाइल भी सुनले | मौलवी साहब ने बरहम हो कर कहा के मेने तुम जैसे लोगो की सारी दलीले सुन रखी है मुझे सब मालूम है तुम क्या कहोगे हज़रत ने बड़े तहम्मुल से कहा मौलवी साहब बेवा माँ के हुक़ूक़ बेटे पर क्या है? उन्होंने कहा के गैर मुतअल्लिक़ सवाल का जवाब नहीं दूंगा तेज़ आवाज़ में कहा हज़रत ने फ़रमाया अच्छा तुम मेरे किसी सवाल का जवाब न देना मेरे चंद सवालात सुन तो लो मेने डेढ़ पोने दो घंटे तक तुम्हारे दलाइल सुने हैं | हज़रत की बात सुन कर मौलवी साहब खामोश हो गए तो आपने दूसरा सवाल किया के क्या किसी से क़र्ज़ ले कर रूपोश हो जाना (भाग जाना) जाइज़ हैं? क्या अपने माज़ूर बेटे की किफ़ालत से दस्तकश हो कर उसे भीक मांगने के लिए छोड़ा जा सकता हैं? क्या हज्जे बदल के इख़राजात (रूपया पैसा वगेरा) ले कर हज….अभी सरकार मुफ़्ती आज़म ने अपना सवाल पूरा भी नहीं किया था के मौलवी साहब ने आगे बढ़ कर क़दम पकड़ते हुए कहा के बस कीजिये हज़रत मसला हल हो गया ये बात आज मेरी समझ में आ गई हैं के रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को इल्मे ग़ैब हासिल था और रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास इल्मे ग़ैब होना ही चाहिए वरना मुनाफिक़ीन मुसलमानो की तंज़ीम को बर्बाद कर देते अल्लाह तआला ने जब आपको मेरे मुतअल्लिक़ ऐसी बाते बता दी जो यहाँ कोई नहीं जनता तो बारगाहे अलीम से रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर क्या इंकिशाफ़ात न होते होंगे? मौलवी साहब उसी वक़्त ताइब हो कर सरकार मुफ़्ती आज़म हिन्द रदियल्लाहु अन्हु से बैअत हो गए।

आप के लिए ट्रेन रुक गई

आप सफ़रों हज़र में भी हमेशा बा जमात नमाज़ वक़्ते मुअय्यना पर अदा फरमाते | एक बार नागपुर से तशरीफ़ ले जा रहे थे रास्ते में मगरिब का वक़्त हो गया आप फ़ौरन गाड़ी से उतर पड़े लोगों ने कहा भी के गाड़ी चलने ही वाली है मगर हज़रत को फ़िक्र नमाज़ दामनगीर थी हज़रत के उतरते ही आप के साथी भी उतर पड़े वुज़ू कर के अभी नमाज़ की नियत बांधी थी के ट्रेन छूट गई हज़रत और उनके साथियों का सारा सामान ट्रेन ही में रह गया ट्रेन के चलते ही कुछ बद अक़ीदह लोगों ने फब्ती भी कसी के मियां की गाड़ी गई लेकिन हज़रत नमाज़ में मसरूफ थे नमाज़ से फारिग हुए तो पेलेट फॉर्म खली था हज़रत के साथी सामान जाने की वजह से परेशान थे मगर हज़रत मुतमइन थे अभी सब सोच ही रहे थे के सामान का क्या होगा इतने में देखा के गॉर्ड साहब भागे चले आरहे हैं और उनके पीछे पचासों मुसाफिर भी दौड़ते आ रहे हैं गॉर्ड ने कहा हुज़ूर गाड़ी रुक गई हज़रत ने फ़रमाया इंजन ख़राब हो गया है आखिर हज़रत डब्बे में बैठे इंजन बदला गया और इस तरह पोन घंटे की देर के बाद गाड़ी चली|

बारगाहे गौसे आज़म रदियल्लाहु अन्हु में हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द रदियल्लाहु अन्हु की मक़बूलियत

जनाब अब्दुल क़य्यूम साहब जो हुज़ूर मुफ्तिए आज़मे हिन्द के मुरीद थे एक मर्तबा अपने दोस्त जनाब आशिक़ अली साहब को लेकर हुज़ूर मुफ़्ती आज़म हिन्द की बारगाह में हाज़िर हुए ताके उनको मुरीद करवा दें हज़रत ने बैअत के कलिमात जनाब आशिक़ अली साहब को कहलवाना शुरू किया और जब आखिर में फ़रमाया के कहो के मेने अपना हाथ हुज़ूर गौसे आज़म के हाथ में दिया तो जनाब आशिक़ अली साहब बोले के मेने अपना हाथ मुफ्तिए आज़म के हाथ में दिया हज़रत ने फ़रमाया में जो कहता हूँ वो कहो के हुज़ूर गौसे आज़म के हाथ में दिया तो जनाब आशिक़ अली साहब बोले के अभी आपने मुझ से कहल वाया के झूठ नहीं बोलूंगा और आप कह रहे हो के हुज़ूर गौसे आज़म के हाथ में दिया? इस पर हज़रत ने फ़रमाया के हुज़ूर गौसे आज़म के सिलसिले में इसी तरह दाखिल करते हैं हमारे मशाइख का यही तरीक़ा है तुम्हे हुज़ूर गौसे आज़म तक पहुंचा दिया जाएगा | हज़रत ने फ़रमाया कहो के हुज़ूर गौसे आज़म के हाथ में दिया उन्होंने फिर भी नहीं कहा बस हुज़ूर मुफ़्ती आज़म हिन्द को जलाल आ गया आपने अपना अमामा उतार कर जनाब आशिक़ अली साहब के सर पर रख दिया और बुलंद आवाज़ में जलाल में फ़रमाया के कहता क्यों नहीं के मेने अपना हाथ हुज़ूर गौसे आज़म के हाथ में दिया? बस इतना सुन्ना था के जनाब आशिक़ अली बार बार कहने लगे के मेने अपना हाथ हुज़ूर गौसे आज़म के हाथ में दिया और बेहोश हो गए कुछ देर बाद होश आया तो जनाब अब्दुल क़य्यूम साहब ने अलग ले जा कर पूछा के क्या हुआ था कुछ तो बताओ तो जनाब आशिक़ अली साहब बोले के जैसे ही हज़रत ने अपना अमामा मेरे सर पर रखा मेने देखा के “गौसुसकलैन क़ुत्बुल कौनैन सरकार सय्यदना गौसे आज़म रदियल्लाहु अन्हु जलवा फरमा हैं और कह रहे हैं के “आशिक़ अली मुफ़्ती आज़म का हाथ मेरा हाथ है ये मेरे नायब और मज़हर हैं कहो के मेने अपना हाथ गौस आज़म के हाथ में दिया” बस मेरा हाथ सरकार गौस आज़म के हाथ में था और में बार बार कहते कहते बेहोश हो गया | फ़िदा तुम पे हो जाए नूरी ऐ मुज़्तर, ये है इस की ख्वाइश दिली गौसे आज़म|

दरगाह अजमेर शरीफ सुल्तानुल हिन्द ख्वाजा गरीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिस्ती रहमतुल्लाह अलैह

ख़लीफ़ए हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द! शायरे इस्लाम हज़रत मौलाना राज़! इलाहबादी अपनी किताब “हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द की करामात” में लिखते हैं के सुल्तानुल हिन्द हज़रत ख्वाजाए ख्वाजगान ख्वाज़ा गरीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह! के “आस्ताने” दरगाह के अंदर जो मस्जिद बानी हुई है, जिस का नाम “अकबरी मस्जिद है” जिसे हिंदुस्तान के बादशाह जलालुद्दीन अकबर! ने सुल्तानुल हिन्द हज़रत ख्वाजाए ख्वाजगान ख्वाज़ा गरीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह! की अक़ीदतों मुहब्बत के जज़्बे में तामीर कराया था, इस के इमाम कारी मुहम्मद शब्बीर साहब हैं, जो अब हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! के दामन से वाबस्ता हो चुके हैं, और हज़रत ने मेरी गुज़ारिश पर इन को और इन के मामू हज़रत मौलाना कारी मुहम्मद याहया साहब! को शरफ़े बैअत से नवाज़ने के बाद खिलाफते रज़विया कादरिया से भी नवाज़ा है, कारी शब्बीर साहब फरमाते हैं:

के में सुल्तानुल हिन्द हज़रत ख्वाजाए ख्वाजगान ख्वाज़ा गरीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह! की बारगाह में रोज़ाना फातिहा ख्वानी पढ़ने के लिए हाज़िर होता रहा, में किसी का मुरीद नहीं था एक दिन में ने सुल्तानुल हिन्द हज़रत ख्वाजाए ख्वाजगान ख्वाज़ा गरीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह! की बारगाह में अर्ज़ किया के हुज़ूर मुझे किसी बा अमल पीर की तलाश है मगर मेरी नज़रों को कोई ऎसी शख्सीयत अभी तक नहीं मिल सकी जिस के हाथ पर में बैअत होता हज़रत ही करम फरमाएं, वो फरमाते हैं उसी शब् में अल्लाह पाक ने मेरी दुआ का असर दिखाया, में अपने हुजरे में सो रहा था निस्फ़ रात गुज़र गई थी, में ने ख्वाब में देखा के मस्जिद अकबरी! के मिम्बर पर एक बुज़रुग खड़े हैं और कुछ इरशाद फरमा रहे हैं उसी वक़्त मुझ से किसी ने कहा के ये बुज़रुग जो खड़े हैं ये “मुफ्तिए आज़म हिन्द” बरैली के रहने वाले हैं तुम इन के दामन से वाबस्ता हो जाओ, में जैसे ही ख्वाब में दौड़ा के उन की कदम बोसी करूँ मेरी आखँ खुल गई, दूसरे दिन सुबह को मेने अजमेर मुकद्द्स! के अहले इल्म से ये वाक़िआ बयान किया तो लोगों ने बताया के वाकई हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! ऐसी ही बुज़रुग शख्सीयत हैं, वो कहते हैं के में हज़रत! का मुन्तज़िर था के उर्से “ख्वाजा गरीब नवाज़” में ज़रूर तशरीफ़ लाएंगे, मेरे इन्तिज़ार की घड़ियाँ ख़त्म हुईं, सुल्तानुल हिन्द हज़रत ख्वाजाए ख्वाजगान ख्वाज़ा गरीब नवाज़ मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी रहमतुल्लाह अलैह! के आस्ताने पर उर्स! की तक़रीबात शुरू हुईं और एक दिन मेरा ख्वाब हकीकत में बदल गया, जिस लिबास में, में ने उस मर्दे मोमिन के रोशन व ताबनाक चेहरे को देखा था, इसी लिबास में में ने अपनी जागती हुई माथे की आँखों से ज़ियारत की और हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! से मुरीद हो गया, वो कहते हैं में ने मामू मौलाना कारी मुहम्मद याहया साहब! जो “शाह जहानी मस्जिद! ये मस्जिद भी दरगाह के अंदर है” के इमाम हैं, उन से अर्ज़ किया वो भी हज़रत की खिदमत में हाज़िर हुए और हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! के मुरीद हो गए, अब ये दोनों हज़रात “अजमेर मुकद्द्स” में हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! के “मुरीद और खलीफा” हैं, हज़रत कारी मुहम्मद याहया साहब! के पीछे हज़रत ने नमाज़ भी पड़ी है।

वो छूट जाएगा उसको फांसी नहीं होगी

ख़लीफ़ए हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द! शायरे इस्लाम हज़रत मौलाना राज़! इलाहबादी अपनी किताब “हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द की करामात” में बयांन करते हैं, हज़रत अल्लामा व मौलमा साजिद अली खान साहब कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी! जो हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! के दामाद भी हैं, मुझे बताने लगे एक बार हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह! शहर अहमदाबाद शरीफ तशरीफ़ ले गए, एक बे कुसूर आदमी को फांसी की सज़ा हो गई थी जिसे परसों फांसी होने वाली थी उसकी बीवी हाज़िरे खिदमत हुई और बच्चों को दिखा कर हज़रत! से कहने लगी हुज़ूर ये सब यतीम हो जाएंगें इस के कहने पर हज़रत! आबदीदह हो गए, हज़रत! ने फ़ौरन तावीज़ दिया और कहा के उस के गले में डाल दो लोगों ने कहा के हुज़ूर! अब परसों ही तो फांसी है हज़रत! ने फ़रमाया अल्लाह पाक बड़ी कुदरत वाला है वो चाहे तो क्या नहीं कर सकता, ये तो उसी का कलाम है जिस को में लिख कर दे रहा हूँ जाओ वो छूट जाएगा वो औरत तावीज़ ले कर जेल की तरफ भागी वहां जा कर अपने शोहर से बताया शोहर ने कहा अब क्या होगा परसों ही सुबह को फांसी है मगर इस की औरत ने तावीज़ पहना दिया उस ने अल्लाह पाक का नाम ले कर पहिन लिया,

अब करामत देखिए उसको फांसी घर की तरफ ले चले कपडा पहनाया गया, उस के गले के तावीज़ को किसी ने नहीं देखा सब अंधे हो गए और तावीज़ पहने हुए फांसी घर गया और उसको फंदा पहना कर लटका दिया गया अब देखते हैं के बिजली लाइट! फेल हो गई जिससे गला दबाते हैं वो बटन दबता ही नहीं है और वो शख्स फंदे में लटका हुआ है और जिस जज! ने फांसी का हुक्म दिया है वो भी खड़ा था उसने तावीज़ देख लिया, उसने कहा के बस अब वक़्त खत्म हो गया अब में तुम्हारे मुक़दमे की समाअत यानि सुनवाई फिर करूंगा उसने मुल्ज़िम से पूछा के तुम बे कुसूर हो उसने कहा हाँ जज! ने कहा ये तावीज़ कैसा पहने हो? उसने जवाब दिया एक बुज़रुग ने दिया था मेरी बीवी लाइ है, जज! ने फिर इस मुक़दमे की समाअत यानि सुनवाई शुरू की, और तमाम हालात से बा खबर हुआ, शहर में ये खबर जंगल की आग की तरह फेल गई मगर हज़रत! उसी दिन बरैली शरीफ चले आए, जज! ने मुल्ज़िम को कटघरे में खड़ा कर के पूछा, तो फिर मुल्ज़िम ने जवाब दिया के में वाकई बे कुसूर हूँ तभी फ़ौरन जज! ने मुल्ज़िम के पास ही एक सफ़ेद दाढ़ी बुज़रुग नूरानी चेहरे वाले को देखा जज! समझ गया और उसने इस को छोड़ दिया और पूछा के वो बुज़रुग कहाँ गए जिन्होंने तुम को तावीज़ दिया था उसने कहा में नहीं जानता ये बात मेरी बीवी जानती है बीवी से पूछा गया तो उस ने कहा के वो शायद बरैली शरीफ! में रहते हैं शहर के मुसलमानो को ख़ुशी हुई कई रईस आदमियों ने इस गरीब आदमी को रुपए दिए और हज़रत! की खिदमत में ले कर बरैली शरीफ कई आदमी आए और वहां हज़रत से फैज़ लिया, आप ने देखा के ये बुर्गज़ीदाह बंदे जिस की मदद करने पर आ जाएं उस को फांसी के तख्ते से उतार लें जिस पर निगाहें करम कर दें एक लम्हे में चोर को वली कर दें,

सख्त बिमारी और बदन का पीलापन खत्म हो गया

ख़लीफ़ए हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द! शायरे इस्लाम हज़रत मौलाना राज़! इलाहबादी अपनी किताब “हुज़ूर मुफ्तिए आज़म आज़म हिन्द की करामात” में बयांन करते हैं, हज़रत! ने मेरी अहलिया को एक तावीज़ इनायत किया था, उस के बांधते ही उन का मर्ज़ गायब हो गया वरना वो हर साल सख्त बीमार हो जातीं और बिलकुल पीली पड गईं थीं मगर उस तावीज़ ने बिलकुल इंजेक्शन की तरह असर किया था वो बिलकुल सेहतमंद हो चुकी थीं, दो साल के बाद अचानत वो तावीज़ गुम हो गया में ने हज़रत! की खिदमत में एक खत लिख कर इस बात का इज़हार किया, रात मेरी वालिदा साहिबा बैठी हुई यहीं बातें कर हैं थीं कहने लगीं के हज़रत! की खिदमत में अगर जिन्नात रहते हैं तो तावीज़ मिल जाना चाहिए और वो तावीज़ ला कर दे सकते हैं, रात को ये बात हो ही रही थी, सुबह को आठ बजे मेरा लड़का गली में निकला दरवाज़े के सामने वही तावीज़ पड़ा था लड़के ने उठा लिया और घर में आ कर हम लोगों को दिखया चार दिन हो गये थे तावीज़ गुम हो गया था, उसी दिन से वो तकलीफ फिर शुरू हो गई थी हमने समझ लिया के खत जैसे ही पहुंचेगा, हज़रत! तावीज़ बा ज़रिए डाक पोस्ट ज़रूर भेजेंगें मगर उस दिन सुबह तावीज़ मिलते ही मेरी अहलिया ने बांध लिया था के दर्द वगेरा गाइब हो गया वो तावीज़ अब तक है।

मुँह से खून आना बंद हो गया

ख़लीफ़ए हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द! शायरे इस्लाम हज़रत मौलाना राज़! इलाहबादी अपनी किताब “हुज़ूर मुफ्तिए आज़म हिन्द की करामात” में बयांन करते हैं, बरैली शरीफ में में ने हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह के मकान पर एक गरीब लड़की जिस की उमर तकरीबन 12, 13, साल की होगी उस को देखा वो सख्त बीमार थी मुँह से खून आता था, गरीब वालिदैन ने बहुत इलाज किया मगर अच्छी न हुई आखिर लड़की हज़रत! के यहाँ लाई गई उस को किसी ने बड़ी आसान दवा बता दी यानी जब हज़रत! पान मुँह से उगलते और उगालदान में डाल देते ऐ लड़की वो चुपके से उगला हुआ हज़रत! का झूठा पान खा लेती उसी दिन से उस का खून बंद हो गया अब वो सेहतमंद है, उसने उस दवा यानि पान के अलावा कुछ नहीं खाया, क्यों न हो हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीस मुबारक है के मुस्लमान के झूठे में शिफा है, और फिर हज़रत! तो ऐसे मर्दे मोमिन जो के अपने वक़्त के सुफिए कामिल हैं।

रेफरेन्स हवाला

  • तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
  • तज़किराए खानदाने आला हज़रत
  • मुफ्तिए आज़म हिन्द और उनके खुलफ़ा
  • तज़किराए उल्माए अहले सुन्नत
  • मुफ्तिए आज़म हिन्द
  • जहाने मुफ्तिए आज़म हिन्द
  • अखबार दब दाए सिकन्दरी 22, मई 1911, ईस्वी
  • तारीखे मशाईखे कादिरिया
  • हयाते मुफ़्ती आज़म हिन्द
  • मुफ़्ती आज़म हिन्द नंबर इस्तेक़ामत कानपुर मई 1983, ईस्वी
  • हयाते मुफ़्ती आज़म की एक झलक

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