सरकार मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

सरकार मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी (पार्ट- 1)

सायाए जुमला मशाइख या खुदा हम पर रहे
रहम फ़रमा आले रहमा मुस्तफा के वास्ते

पैदाइश मुबारक

आप की विलादत बा सआदत 22, ज़िल हिज्जा 1310, हिजरी मुताबिक 18, जुलाई 1892, बरोज़ जुमा मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! के बिरादरे हकीकी अल्लामा हसन रज़ा खान बरेलवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के दौलत कदे मोहल्ला रज़ा नगर सौदागिरान! यूपी के मशहूर ज़िला बरैली शरीफ इण्डिया में हुई।

नाम इस्मे गिरामी

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह का पैदाइशी और असली नाम “मुहम्मद” है, और इसी नाम मुबारक पर आप का अक़ीक़ा! हुआ, गैबी नाम “आले रहमान” है, पिरो मुर्शिद ने आप का नाम “अबुल बरकात मुहीयुद्दीन जिलानी” रखा, और वालिद माजिद ने उर्फी नाम “मुस्तफा रज़ा” रखा, फन्ने शायरी में आप अपना तखल्लुस “नूरी” फरमाते थे, उर्फी नाम इस कदर मशहूर हुआ के खासो आम में आप को इसी नाम से याद किया जाता है।

ख्वाबे रज़ा व बशारते पीरो मुर्शिद

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह की विलादत (पैदाइश) से पहले अपने पीरो मुर्शिद, रहबरे कामिल ज़ुब्दतुल आरफीन हज़रत सय्यद शाह आले रसूल अहमदी मारहरवीं रहमतुल्लाह अलैह (मुतवफ़्फ़ा 1297, हिजरी) के मज़ार शरीफ की ज़ियारत और हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह से मुलाकात के लिए मारहरा मुक़द्दसा तशरीफ़ ले गए थे, पैदाइश से एक रोज़ पहले वालिद माजिद मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! ने दयारे मुर्शिद में ख्वाब देखा के “फ़रज़न्दे अर्जमन्द की विलादत हुई है और ख्वाब ही में नाम “आले रहमान” तजवीज़ हुआ,

अहवाले विलादत में एक रिवायत इस तरह भी है: बाद नमाज़े असर हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह मस्जिद के ज़ीने से उतर रहे थे और हुज़ूर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! इन के पीछे पीछे आ रहे थे के अचानक हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया “मौलाना साहब! बरैली में आप के घर में एक साहबज़ादे की विलादत हुई है, मुझे ख्वाब में बताया गया है के उस का नाम “आले रहमान” रखा जाए और फिर फ़रमाया जब में बरैली आऊंगा तो उस बच्चे को ज़रूर देखूँगा वो बड़ा ही “फ़िरोज़ बख्त, मुबारक बच्चा” है।

इन दोनों रिवायतों में ततबीक़ व तकमील करते हुए राकिमुल हुरूफ़ से एक मुलाकात में फकीहे ज़ीशान अल्लामा मुफ़्ती मुतीउर रहमान रज़वी ने फ़रमाया: 22, ज़िल हिज्जा 1310, हिजरी की शब में तकरीबन निस्फ़ रात तक हुज़ूर इमाम अहमद रज़ा कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी! और सय्यदुल मशाइख हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह! के दरमियान इल्मी मुज़किरात (बात चीत) होती रही, फिर इस के बाद दोनों ने आराम फ़रमाया, इसी शब ख्वाब में दोनों बुज़ुरगों को “हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह” की विलादत की नवेद (बशारत, खुश खबरि)
दी गई और बच्चे का नाम आले रहमान बताया गया, ख्वाब से बेदारी पर दोनों बुज़ुरगों में से हर एक ने फैसला किया के मुलाकात के वक़्त मुबारक बाद पेश करूंगा, फजर की नमाज़ के लिए जब दोनों बुज़रुग मस्जिद पहुंचे तो मस्जिद के दरवाज़े पर ही दोनों बुज़ुरगों की मुलाकात हो गई और वहीं एक दूसरे को मुबारक बाद पेश की नमाज़ के बाद हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह! ने हुज़ूर इमाम अहमद रज़ा कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी! से इरशाद फ़रमाया “मौलाना साहब! आप उस बच्चे के वली हैं, अगर इजाज़त दें तो में दाखिला सिलसिला कर लूँ, हुज़ूर इमाम अहमद रज़ा कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी! ने अर्ज़ किया: हुज़ूर गुलाम ज़ादाह है, उसे दाखिला सिलसिला फरमा लीजिये हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह! ने मुसल्ले ही पर बैठे बैठे इमाम अहमद रज़ा के नूरे नज़र लख्ते जिगर “आले रहमान” और मुस्तकबिल के मुजद्दिद व मुफ्तिए आज़म को गाइबाना दाखिले सिलसिला फरमा लिया, हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह! ने इमाम अहमद रज़ा को अपना इमामा और जुब्बा अता फरमाते हुए इरशाद फ़रमाया मेरी ये अमानत आप के सुपुर्द है, जब वो बच्चा इस अमानत का मुतहम्मिल हो जाए तो उसे दे दें, उस का नाम “आले रहमान” रखना मुझे उस बच्चे को देखने की तमन्ना है, वो बड़ा ही फ़िरोज़ बख्त मुबारक बच्चा है, में पहली फुरसत में बरैली हाज़िर हो कर आप के बेटे की रूहानी अमानतें उस के सुपुर्द कर दूंगा, दूसरे ही दिन विलादत की खबर मारहरा शरीफ पहुंची तो हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी रहमतुल्लाह अलैह! ने नो मौलूद बच्चे का नाम! “अबुल बरकात मुहीयुद्दीन जिलानी” रखा,

मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! उसी रोज़ मारहरा मुक़द्दसा से बरैली शरीफ पहुंचे, बेटे को सीने से लगाया और पेशानी चूम कर कहा, “खुश आमदीद वलीए कामिल”

बरैली शरीफ में सब से पहली बशारत

मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! को साहब ज़ादे की विलादत पर बरैली में सब से पहली मुबारक बाद उस्ताज़ुल असातिज़ा हज़रत अल्लामा शाह रहम इलाही मंगलोरी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने पेश की और इरशाद फ़रमाया: किसी कोशिश के बगैर एक माद्दाए तारीख ज़बान पर आ गया है जो बुलंद इक़बाल शहज़ादे के साले विलादत को उन के ताबनाक मुस्तकबिल के साथ ज़ाहिर करता है।

बैअतो खिलाफत

आप को बैअत का शरफ़ क़ुत्बे आलम शैख़े तरीकत सय्यदुल मशाइख हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी मारहरवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी से था और छेह 6, साल की उमर शरीफ में सय्यदुल मशाइख हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने अपनी शहादत की उंगली दहन मुबारक में डाल दी, और हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह शीरे मादर की तरह चूसने लगे, और फिर आप को बैअत करने के बाद जुमला सलासिल कादिरिया, चिश्तिया, नक्शबंदिया,सोहर वर्दिया, मदारिया, वगेरा की इजाज़त से भी नवाज़ा, अपने शैख़ तरीकत पीरो मुर्शिद के अलावा वालिद माजिद इमामे अहले सुन्नत मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! से भी खिलाफ़तो इजाज़त हासिल फ़रमाई,

25, सफर 1340, हिजरी मुताबिक 28, अक्टूबर 1921, ईस्वी बरोज़ जुमा को वालिद माजिद इमामे अहले सुन्नत फाज़ले बरेलवी रहमतुल्लाह अलैह का विसाल हुआ, खलफ़े अकबर हुज़ूर हुज्जतुल इस्लाम हज़रत अल्लामा शाह हामिद रज़ा खान बरेलवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी! को मंसबे सज्जादगी और खानकाहे आलिया, कादिरिया, बरकातिया, रज़विया, और मदरसा दारुल उलूम मन्ज़रे इस्लाम के तमाम उमूर व फ़राइज़ की ज़िम्मेदारी सुपुर्द की गई, हज़रत अल्लामा शाह हामिद रज़ा खान बरेलवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी के विसाल के बाद बा इत्तिफाके राए हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह! को खानकाहे आलिया, कादिरिया, बरकातिया, रज़विया, और मदरसा दारुल उलूम मन्ज़रे इस्लाम की सज्जादगी और तमाम उमूरे दीनिया के फ़राइज़ की ज़िम्मेदारी आप को सौंप दी गई, जिसे ता हयात मिसाली तरीके पर अंजाम दिया।

इजाज़तो खिलाफते “रज़ा”

सय्यदी आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु ने अपने नूरे नज़र लख्ते जिगर खलफ़े असगर हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह! को जमी तमाम औरादो, वज़ाइफ़, व अशग़ाल, अज़कार, व आमाल और तमाम सलासिले तरीकत में माज़ून व मजाज़ बनाया और सब की इजाज़त अता फ़रमाई, मुर्शिदे कामिल और वालिद माजिद दोनों की दुआओं और बशरतों का एक एक हर्फ़ पूरा हुआ।

मुर्शिदे कामिल की दूसरी बशारत

सय्यदुल मशाइख हज़रत सय्यद शाह अबुल हुसैन अहमदे नूरी मारहरवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी ने हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह को बैअत करते वक़्त इरशाद फ़रमाया “ये बच्चा दीनो मिल्लत की बड़ी खिदमत करेगा और मखलूके खुदा को इस की ज़ात से बहुत फैज़ पहुंचेगा, ये बच्चा वली है, इस की निगाहों से लाखों गुमराह इंसान दीने हक पर काइम होंगें, ये फैज़ का दरिया बहाएगा।

हुलिया मुबारक

कद मुबारक दराज़ चेहरा गोल, रोशन व ताबनाक जिससे नूर बरस रहा हो और जिसे देख कर खुदा याद आए, ऑंखें बड़ी बड़ी चमकदार, भवें गन्जान हाला लिए हुए पलके घनी, बाल सफ़ेद आखरी उमर में, अंगुश्त सफ़ेद गंदुमी, रेश मुबारक घनी, मूंछ न बहुत पस्त ना उठी हुई, नाक मुनासिब दराज़, रुखसार भरे हुए गुदाज़, जमालो जलाल का आईना दार, सर बड़ा सा गोल, पेशानी कुशादा उभरी हुई तक़द्दुस के आसार लिए हुए लब पतले गुलाब की पत्ती की तरह तबस्सुम के आसार लिए हुए दन्दाने मुबारक छोटे छोटे हमवार मोतियों की लड़ी की तरह, गर्दन मुआतदिल, सीना चौड़ा, कमर खमीदाह हाइल, हाथ लम्बे लम्बे पाऊँ मुतावस्सित ज़ोफ़ का असर लिए हुए लिबास इमामा बड़ी अर्ज़ का ज़्यादातर सफ़ेद बादामी पोशाक, कुरता कली दार पायजामा अली गढ़, जूता नागरा जयपुरी।

फ़ज़ाइलो कमालात

आफ़ताबे इल्मे मारफअत, महताब रुश्दो हिदायत, वाक़िफ़े असरारे शरीअत, दानाए रुमूज़े हकीकत ताजदारे अहले सुन्नत जामे माकूल व मन्क़ूल, हावी फरा व उसूल, शमशुल आरफीन, नाइबे सय्यदुल मुर्सलीन, मुतकल्लिम अब्जल, मुहद्दिसे अकमल, फकीहे अजल, मुक़्तदाए आलम, शहज़ादाए मुजद्दिदे आज़म, हुज़ूर सय्यदी मुर्शिदी हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मौलाना अल हज अश्शाह अबुल बरकात मुहीयुद्दीन जिलानी आले रहमान मुहम्मद मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह! आप सिलसिले आलिया कादिरिया रज़विया, के इकतालीसवें 41, वें इमाम व शैख़े तरीकत हैं! आप के फ़ज़ाइल व मनाक़िब बेशुमार सफ़हात पर फैले हुए हैं।

तअलीमो तरबीयत

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह ने अस्ल तरबीयत और तालीम तो अपने वालिद माजिद मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! से हासिल फ़रमाई, उलूमे दीनिया की तकमील भी अपने वालिद माजिद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! से की, जिस में आप ने इल्मे तफ़्सीर, इल्मे हदीस, इल्मे फ़िक़्ह, इल्मे अक़ाइद, इल्मे फ़राइज़, कलाम, तफ़्सीर, मुआनी, मंतिक, सर्फ़, नहो, मुनाज़िराह, फलसफा, तकसीर, हय्यत, हिसाब हिंदसा, किरात, तजवीद, तसव्वुफ़, सुलूक, तौकीत, असमाउर रिजाल, मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! के हुक्म से जिन दीगर नामवर, मश्हूरे ज़माना और काबिल असातिज़ाए किराम से इल्मे दीन हासिल किया उन के असमाए गिरामी ये हैं:

(1) हुज़ूर हुज्जतुल इस्लाम हज़रत अल्लामा शाह हामिद रज़ा खान बरेलवी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी तिलमीज़
(शागिर्द) व फ़रज़न्दे अकबर आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु!,
(2) उस्ताज़ुल असातिज़ा हज़रत अल्लामा शाह रहम इलाही मंगलोरी रहमतुल्लाह अलैह (मुतावफ़्फ़ा 1363,
हिजरी) “तिलमीज़ (शागिर्द) मौलाना सय्यद अब्दुल अज़ीज़ अम्बेठवी रहमतुल्लाह अलैह, (मुतावफ़्फ़ा
1344, हिजरी)” “तिलमीज़ (शागिर्द) हज़रत अल्लामा अब्दुल हक खैराबादी रहमतुल्लाह अलैह (मुतावफ़्फ़ा
1316, हिजरी)” और आप के उस्तादे मुहतरम हैं मर्दे मुजाहिद, मुजाहिदे जंगे आज़ादी हज़रत अल्लामा
फ़ज़्ले हक खैराबादी रहमतुल्लाह अलैह,
(3) शैखुल उलमा हज़रत अल्लामा शाह सय्यद बशीर अहमद अली गढ़, “तिलमीज़ (शागिर्द) हज़रत मौलाना
मुफ़्ती लुत्फुल्लाह अली गढ़ी रहमतुल्लाह अलैह (मुतावफ़्फ़ा 1334, हिजरी)”,
(4) शमशुल उलमा हज़रत अल्लामा ज़हूर हुसैन फारूकी रामपुरी रहमतुल्लाह अलैह, (मुतावफ़्फ़ा 1342,
हिजरी)” “तिलमीज़ (शागिर्द) क़ुत्बे ज़माना हज़रत मौलाना फ़ज़्ले रहमान गंज मुरादाबादी रहमतुल्लाह
अलैह, “तिलमीज़ (शागिर्द) ख़ातिमुल मुहद्दिसीन हज़रत अल्लामा शाह अब्दुल अज़ीज़ मुहद्दिसे देहलवी
रहमतुल्लाह अलैह, व “तिलमीज़ (शागिर्द) हज़रत अल्लामा अब्दुल हक खैराबादी रहमतुल्लाह अलैह
(मुतावफ़्फ़ा 1316, हिजरी)।

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह की “फरागत”

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह ने 1328, हिजरी मुताबिक 1990, ईस्वी में बा उमर अठ्ठारा 18, साल खुदा दाद ज़हानत ज़ोके मुताला लग्न व मेहनत असातिज़ाए किराम की शफकत, व मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! की कामिल तवज्जुह और शैख़े मुकर्रम सय्यदुल मशाइख हज़रत अबुल हुसैन अहमदे नूरी मारहरवी रहमतुल्लाह अलैह की इनायात के नतीजे में जुमला उलूमो फुनून, मअकुलात व मनकूलात, पर उबूर महारत हासिल कर के मरकज़े अहले सुन्नत मदरसा “दारुल उलूम मन्ज़रे इस्लाम” बरैली शरीफ से तकमीले फरागत हासिल की।

बंद किताब को पढ़ना

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह एक रोज़ बंद किताब सामने रखे हुए बा गौर उसे देख रहे थे के अचानक हज़रत मौलाना सय्यद बशीर अहमद अली गढ़ी कुद्दीसा सिर्रहु वहां पहुंच गए और हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह के इस अंदाज़े मुताला को देख कर दर्याफ़्ता किया: “बंद किताब को देखने से क्या फाइदा हासिल कर रहे हो? हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह ने खड़े हो कर सलाम किया और कहा: में इस इमकान का जाइज़ा ले रहा था के बंद किताब भी पढ़ी जा सकती है या नहीं? हज़रत मौलाना सय्यद बशीर अहमद अली गढ़ी कुद्दीसा सिर्रहु ने दूसरा सवाल किया “फिर आप किस नतीजे पर पहुंचे? हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह ने बड़ी सादगी से जवाब दिया: “बंद किताब भी खुली किताब की तरह पढ़ी जा सकती है” हज़रत मौलाना सय्यद बशीर अहमद अली गढ़ी कुद्दीसा सिर्रहु ने इस जवाब से लुत्फ़ उठाते हुए फ़रमाया: आप में ये सलाहीयत होना ही चाहीए, आप पर इमामुल औलिया शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी रदियल्लाहु अन्हु का सायाए रहमत है।

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह का “पहला फतवा”

1328, हिजरी मुताबिक 1910, ईस्वी में जब हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह की उमर मुबारक 18, साल थी, आप किसी काम से दारुल इफ्ता में तशरीफ़ ले गए, तो वहां मलिकुल उलमा हज़रत अल्लामा ज़फरुद्दीन बिहारी, और मौलाना सय्यद अब्दुर रशीद अज़ीमाबादी फतवा लिखने के लिए रज़ाअत के किसी मसले पर गुफ्तुगू कर रहे थे, बात कुछ उलझ गई मलिकुल उलमा हज़रत अल्लामा ज़फरुद्दीन बिहारी कुद्दीसा सिररुहुन नूरानी उठे ताके अलमारी से “फतावा रज़विया” निकाल कर उससे रौशनी हासिल करें, हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह ने फ़रमाया: नो उमरी का ज़माना था, में ने कहा! क्या “फतावा रज़विया” देख कर जवाब लिखते हो? मौलाना ने फ़रमाया अच्छा तुम बगैर देखे लिख दो तो जानू, में ने फ़ौरन लिख दिया वो रज़ाअत! का मसला था, जब फतवा इस्लाह की गरज़ से आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की बारगाह में पेश किया गया, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने खत पहचान लिया, दरयाफ्त फ़रमाया किस ने दिया है, ले जाने वाले ने कहा “छोटे मियां” ने (घर में लोग प्यार में मुफ्तिए आज़म को “छोटे मियां” कहते थे) आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने तलब फ़रमाया, हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह खिदमत में हाज़िर हुए, देखा के आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! बाग़ बाग़ हैं पेशानी अक़दस पर बशाश्त है, फ़रमाया इस पर दस्त खत करो दस्त खत! करने के बाद आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने अल जवाब सही! लिख कर अपने दस्त खत फरमाए, इस तरह अगर एक तरफ हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह “दारुल इफ्ता” के मुफ्तियाए किराम पर सबक़त ले गए, तो दूसरी तरफ “इमाम अहमद रज़ा रहमतुल्लाह अलैह” की तरफ “फतवा नवेसी” की बा काइदा इजाज़त मिल गई,

फतवा नवेसी के इस हुस्ने आगाज़ पर मुजद्दिदे आज़म आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा मुहद्दिसे बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु! ने अपने शहज़ादाए सगीर “हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा खान नूरी रहमतुल्लाह अलैह” को पांच रुपए बा तौरे इनआम अता फरमा कर इरशाद फ़रमाया: तुम्हारी मुहर बनवा देता हूँ, अब फतवा लिखा करो, अपना एक रजिस्टर बनालो, उस में भी नकल किया करो! और आप को “अबुल बरकात मुहीयुद्दीन जिलानी आले रहमान मुहम्मद उर्फ़ मुस्तफा रज़ा” के नाम से हाफ़िज़ यकीनुद्दीन रहमतुल्लाह अलैह के भाई से मुहर बनवा कर अता फ़रमाई, बाराह 12, साल तक वालिद माजिद की ज़िन्दगी में फतवा नवेसी करते रहे जिस का सिलसिला आखरी उमर तक जारी रहा, ये मुहर आप के तीसरे हज के मोके पर जद्दह में दीगर सामानो के साथ गुम हो गई।

अख़लाक़ो किरदार

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह उस खानवादे के चश्मों चिराग हैं जिन्होंने ज़माने को तहज़ीबो अख़लाक़, उख़ूवत व मसावात इस्लामी का दरस दिया जिन का दर हर मनगते के लिए हमा वक़्त खुला रहता, आप में खुश अख़लाक़ी, शफकत व रिफाकत, तवाज़ो इंकिसारी और मुहब्बत व इखलास बदरजए अतम पाए जाते थे, आप ने कभी किसी गरीब की दावत को रद्द नहीं फ़रमाया, अमीरो कबीर और बड़े लोगों से दूर भागते थे और निहायत ही पाकीज़ह और बुलंद किरदार के मालिक थे,

आप की हयाते तय्यबा में एक बार अकबर अली खान साहब! जो यूपी के गवर्नर थे जो आप की ज़ियारत करना चाहते थे मगर हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह उन के आने से कुछ देर क़ब्ल पुराना शहर बरैली में एक बीमार दम तोड़ते हुए गरीब सुन्नी की ईयादत के लिए तशरीफ़ ले गए,

इसी तरह फखरुद्दीन अली अहमद! साबिक सदर जम्हूरिया जब जर्नल थे, तो “आस्तानए आला हज़रत” पर हाज़री देने के लिए आए और हज़रत की ज़ियारत करना चाहिए मगर हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह इन से भी ना मिले, इस तरह ना जाने कितने वुज़रा व उमरा हाकिमे वक़्त आते रहते थे मगर हज़रत उन से मिलना गवारा नहीं करते थे क्यों के हज़रत को आज की सियासत और दुनियादारी से क्या लगाओ, महमानो की खातिर दारी में कोई कसर नहीं उठा रखते, हज़रत मेहमान खाने में तशरीफ़ ले जा कर एक एक मेहमान से दरयाफ्त फरमाते के खाना खाया के नहीं, चाय मिली या नहीं, कोई तकलीफ तो नहीं, अक्सर ये भी देखा गया के आप खुद ही महमानो के लिए घर के अंदर से खाना ले कर आते और खिलाते थे।

झुकी  हैं  गर्दनें दर पर तुम्हारे ताज वालों की 
मेरे आका मेरे मौला वो ताजे औलिया तुम हो

बाज़ खुसूसी आदतें

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह हर मुस्लमान को ज़ाहिरो बातिन दोनों हालतों में मुसलमान देखना चाहते थे, हर एक को इस्लामी शिआर अपनाने की तालीम उठते बैठते देते थे,, दाढ़ी मुंडों नग्गे सर वालों और अंग्रेजी लिबास पहिनने वालों से बेज़ारी का इज़हार फरमाते, सर पर टोपी लगाने, दाढ़ी रखने और इस्लामी लिबास पहिनने की तलकीन करते थे, टाई बाँधने वाले से सख्त बेज़ारी का इज़ार करते और टाई खींच लेते और टाई बांधने वालों से तौबा कराते थे और उस पर तज्दीदे बैअत व तज्दीदे निकाह का हुक्म लगाते थे, हर काम या चीज़ के लेने देने का दाहिने हाथ से एहतिमाम करते, गोरमेंट को सरकार कहने और कोर्ट को अदालत कहने से मना फरमाते थे, क़ुतुब अहादीस पर दूसरी किताबें नहीं रखते थे, ज़िक्रे मिलादे पाक या महफिले नात व मनकबत में ख़त्म होने तक बा अदब बैठे रहते थे, क़िबला की तरफ मूंह कर के कभी नहीं थूकते और नाही क़िब्ले की तरफ पाऊं करते थे, कब्रिस्तान में जब भी तशरीफ़ ले जाते तो पूरा पैर रख कर नहीं चलते, बल्के हमेशा पंजों के बल जाते थे यहाँ तक के धूप में आधा आधा घंटा इसाले सवाब और फातिहा ख्वानी में मशगूल रहते थे, लेकिन पंजों ही के बल खड़े रहते, बीमारों की ईयादत देख भल को जाते, अगर किसी के यहाँ गमी इन्तिकाल हो जाए तो ताज़ियत को जाते और मय्यत वाले के घर कुछ ना खाते और सब्रो तसल्ली की तलकीन करते, उल्माए किराम का बेहद एहतिराम करते, सादाते किराम का इस अंदाज़ से एहतिराम करते जैसे कोई रियाया अपने बादशाह का एहतिराम करता है, गैर इस्लामी नाम रखने को मना फरमाते, और अंग्रेज़ों और गैर मुस्लिमो के नाम रखने को मना फरमाते सख्त नाराज़ और नाम बदल देते, अब्दुल्लाह, अब्दुर रहमान, मुहम्मद, वगेरा नाम रखते।

तवाज़ो इंकिसारी

आप के अंदर तवाज़ो व इंकिसारी कूट कूट कर भरी हुई थी, अगर किसी को इस की गैर शरई हरकत पर डांट देते थे या किसी मौका पर नाराज़गी का इज़हार करते थे तो बाद में उसे समझाते और उसकी दिल जोई फरमाते और दुआओं से नवाज़ते, अक्सर लोग हज़रत की शान में मनकबत पढ़ते तो उन्हें उससे रोकते और फरमाते के में इस लाइक कहा, अल्लाह पाक इस लाइक बनाए।

मांगने वाला  सब कुछ पाए  रोता आए हसंता  जाए 
ये है उनकी अदना करामत मुफ्तिए आज़म ज़िंदा बाद 

जूदो सखावत

तख्तो ताज और हुकूमत व रियासत के मालिक किसी को दुनियावी दौलत और मसर्रत दे सकते हैं लेकिन ये उनके बस की बात नहीं के क्लब बेकरार को सुकून और बिलकते होंठों को मुस्कुराहट दे सकें मगर ताजदारे अहले सुन्नत, ताजे विलायत व करामत लोगों को दौलते दुनिया के साथ साथ दौलते दीन भी अता फरमाते थे, उनके दर की गदाई सरवरी से कम नहीं, हर रोज़ सैंकड़ों रोहानी व कलबी हाजत मंद आते और अपनी अपनी मुरादे ले कर जाते, कोई दुआ कराने आ रहा है कोई तावीज़ लेने आते मगर किसी को मना नहीं करते, इसके अलावा ना जाने कितने घराने हज़रत की सखावत से परवरिश पा रहे थे, तालिबे इल्मो तलबा! पर तो ख़ास करम फरमाते थे, महमानो की ख़ातिरो मदारत भी करते और अक्सर को किराया तक देते थे,, जड़ों में अक्सर गरीबों को गरम कपड़े और गर्म चादरें और लिहाफ वगेरा देते थे,

अक्सर उल्माए किराम को आप ने खिलाफत अता की, खुद हज़रत ने अपने हाथों से उनके सर पर इमाम बांधा बहुतों को जुब्बा दस्तार व टोपी भी अता की, एक मर्तबा जाड़े के मौसम में कुछ खुद्दाम हज़रत की खिदमत में हाज़िर थे, रात का वक़्त था हज़रत अपने बदन पर शाल डाले पलंग पर बैठे थे, मौलाना अबू सुफियान साहब! ने हज़रत की शाल को छू कर देखा और इस की तारीफ की, हज़रत ने फ़ौरन वो शाल उतार कर उन को दे दी, वो बार बार मना मना करते रहे लेकिन हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह ने उन्हें वो बख्श दी।

इस के अलावा आप की अक्सर मजलिसें इल्मी अदबी और सरापा खेरो बरकत होती थीं और मसाइल तसव्वुफ़ का ज़िक्र भी निहायत आसान व दिलनशीन अंदाज़ में आप बयान फरमाते और अनवार व तजल्लियात की बारिश होती।

इबादतो रियाज़त

आप सफ़रों हज़र में भी हमेशा बा जमाअत नमाज़ वक़्त मुअय्यना पर अदा फरमाते, बरैली शरीफ में क़याम के दौरान घर से आप के बर अमद होते ही कई आदमी आप को आगे पीछे से घेर लेते और मस्जिद के दरवाज़े तक पहुंचते पहुंचते जो बा मुश्किल पचास कदम दूरी पर होगा, किसी को दस्त बोसी का शरफ़ बख्शते किसी को मुसाफा से नवाज़ते और किसी के सलाम का जवाब देते, इतने में मस्जिद के दरवाज़े में दाखिल होने का मौका आ जाता आप फ़ौरन निहायत मतानत व आहिस्ता से दुआ पढ़ते और दाखिल होते और इमामा उतार कर वुज़ू के लिए बैठ जाते, सारे आज़ा सुन्नत के मुताबिक मुकम्मल तौर पर धुलते और सारे वुज़ू में दुआए मासूरा की तिलावत पस्त आवाज़ में जारी रहती, नमाज़ में खुशु ख़ुज़ू का ये आलम था के पूरी नमाज़ में आप के वुजूद पर उबूदियत की शान बंदगी का जमाल तारी रहता था, देखने वाला दूर ही से फैसला कर लेता था के एक मोमिन इबादत गुज़ार ने अपने मौला की रज़ा जोई के लिए अपने पूरे वुजूद को इज्ज़ अर्ज़ो इल्तिमास के सांचे में ढाल लिया है अपने आप को खुदा की याद में खो दिया है,

एक बार नागपुर से तशरीफ़ ले जा रहे थे, रास्ते में मगरिब का वक़्त हो गया, आप फ़ौरन गाड़ी से उतर पड़े लोगों ने कहा भी के गाड़ी चलने ही वाली है मगर हज़रत को फ़िक्र नमाज़ दामनगीर थी, हज़रत और उन के साथियों का सारा सामान ट्रेन ही में रह गया, ट्रेन के चलते ही कुछ बद अक़ीदह लोगों ने फब्ती कसी के मियां! की गाड़ी गई लेकिन हज़रत नमाज़ में मसरूफ थे, नमाज़ से फारिग हुए तो पलेट फार्म खली था, हज़रत के साथी सामान जाने की वजह से परेशान थे मगर हज़रत मुत्मइन थे, अभी सोच ही रहे थे के सामान का क्या होगा इतने में देखा के गार्ड साहब! भागे चले आ रहे हैं और उनके पीछे पचासों मुसाफिर भी दौड़ते आ रहे हैं, गार्ड ने कहा हुज़ूर गाड़ी रुक गई, हज़रत ने फ़रमाया: इंजन खराब हो गया है, आखिर हज़रत डब्बे में बैठे इंजन बदला गया और इस तरह पोन घंटे की ताख़ीर के बाद गाड़ी चली।

सरापा हुब्बे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह सरापा हुब्बे रसूल और रज़ाए मुस्तफा थे और जो अज़मत उन्हें हासिल हुई मुहब्बे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही की बिना पर हासिल हुई और क्यों ना हो के इश्के मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ही जाने ईमान है, हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के इश्क में फनाईयत का शाहिद उनकी ज़िन्दगी का हर लम्हा है उनकी मुहब्बते रसूल में फनाईयत का सही अंदाज़ा इस बात से होता है के आखरी उमर में बावजूद शदीद अलालत के नात की महफ़िल में घंटों बा अदब बैठे रहते थे और नाते पाक के हर हर मिसरे पर रोना और वालिहाना कैफियत का तारी होना इस बात की तरफ इशारा है के वो हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत में गुम हो चुके थे, हर साल ईद मिलादुन्नबी का जश्न निहायत तुज़को एहतिशाम से मनाते, बारवी शब से दूसरे दिन दोपहर कुछ देर क़ब्ल नात ख्वानी मिलाद और सलातो सलाम का सिलसिला काइम रहता, शिरीनी तकसीम होती लंगर बटता और आम दावत होती।

ये दिल ये जिगर है ये आँखें ये सर है 
जहाँ  चाहो रखो कदम गौसे आज़म 

गौसे आज़म रहमतुल्लाह अलैह से अकीदत

हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह को इमामुल औलिया शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी गौसे आज़म रदियल्लाहु अन्हु से किस दर्जा अकीदत थी इस का अंदाज़ा मुन्दर्जा ज़ैल वाकिए से होता है: एक बार इमामुल औलिया शैख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी गौसे आज़म रदियल्लाहु अन्हु की औलाद में से एक जवान हज़रत पीर ताहिर अलाउद्दीन गिलानी साहब! बरैली शरीफ तशरीफ़ लाए तो हज़रत मुफ्तिए आज़म हिन्द मुस्तफा रज़ा नूरी रहमतुल्लाह अलैह की नियाज़मन्दी और अकीदत का ये आलम था के उन के पीछे मोअद्दब हो कर नग्गे पाऊं चलते थे, जैसे खादिम अपने आका के पीछे चला करता है, हुज़ूर गौसे आज़म रहमतुल्लाह अलैह की ज़ात में फनाईयत का ये आलम था के आप का जिस्म व शक्लो शबाहत हुज़ूर गौसे आज़म रहमतुल्लाह अलैह के हम शक्ल थी।

रेफरेन्स हवाला

  • तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
  • तज़किराए खानदाने आला हज़रत
  • मुफ्तिए आज़म हिन्द और उनके खफा
  • तज़किराए उल्माए अहले सुन्नत
  • मुफ्तिए आज़म हिन्द
  • जहाने मुफ्तिए आज़म हिन्द
  • अखबार दब दाए सिकन्दरी 22, मई 1911, ईस्वी
  • तारीखे मशाईखे कादिरिया
  • हयाते मुफ़्ती आज़म हिन्द
  • मुफ़्ती आज़म हिन्द नंबर इस्तेक़ामत कानपुर मई 1983, ईस्वी
  • हयाते मुफ़्ती आज़म की एक झलक

Share this post