सरकार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी

सरकार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी रदियल्लाहु अन्हु की ज़िन्दगी (पार्ट- 6)

कर अता अहमद रज़ाए अहमदे मुरसल मुझे
मेरे मौलाना हज़रते अहमद रज़ा के वास्ते

“इमाम अहमद रज़ा और एहतिरामे सादात”

फिदाए आले रसूल

हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुहब्बत व तअज़ीम से है के आप की औलादे अमजाद से भी मुहब्बत की जाए, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी सरखीले सरदारे उश्शाक थे, इस लिए वो किसी सय्यद साहब! को उस की ज़ाती हैसियत व लियाकत से नहीं देखते थे बल्के इस हैसियत से मुलाहिज़ा फरमाते थे के सरकारे दो आलम हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का जुज़ (हिस्सा) हैं,

मुहिब्बे सादाते आला हज़रत एक इस्तिफता के जवाब में सादाते किराम से अपनी गुलामी और नियाज़मन्दी का इज़हार इन अलफ़ाज़ में फरमाते हैं “फ़क़ीर ज़लील बिहम्दिहि तआला हज़राते सादाते किराम का अदना गुलाम व खाकपा है, उन की मुहब्बतों अज़मत ज़रियाए निजात व शफ़ाअत जानता है अपनी किताबों में छाप चुका है के सय्यद अगर बदमज़हब भी हो जाए उस की तअज़ीम नहीं जाती जब तक बदमज़हबी कुफ्र तक न पहुंचे”

1335, हिजरी में हकीम अब्दुल जब्बार खान ने सवाल पूछा के: क्या सय्यद पर दोज़ख की आंच क़तअन हराम है, और वो किसी बद आमाल की पादाश में दोज़ख में जा ही न सकेगा? इस सवाल के जवाब में आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी फरमाते हैं: “सादाते किराम जो वाकई इल्मे इलाही में सादात हों, उन के बारे में अल्लाह पाक से उम्मीदे वासिक (मज़बूत) यही है के आख़िरत में उन को किसी गुमाह का अज़ाब न दिया जाएगा”,

हदीस शरीफ में है के उन का फातिमा नाम इस लिए हुआ के अल्लाह पाक ने उन को और उन की तमाम ज़ुर्रियत (औलाद) को आग पर हराम फरमा दिया, दूसरी हदीस में है के हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हज़रत बुतूले फातिमा ज़हरा रदियल्लाहु अन्हा से फ़रमाया: ऐ फातिमा! अल्लाह पाक न तुझे अज़ाब करेगा न तेरी औलाद में किसी को।

खानदाने रज़ा और एहतिरामें सादात

सिर्फ आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ही नहीं आप का पूरा खानदान सादात की इज़्ज़त व अज़मत के लिए मुद्दत से मशहूर था, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के दादा मौलाना रज़ा अली खान रहमतुल्लाह अलैह रोज़ाना नमाज़े फजर पढ़ कर “नो मोहल्ला” सादाते किराम की खैरियत मालूम करने और सलाम अर्ज़ करने जाया करते थे, उन के इस मामूल में किसी मजबूरी ही से फर्क पड़ता था, मौलाना रज़ा अली खान रहमतुल्लाह अलैह के बाद मौलाना शाह नकी अली खान रहमतुल्लाह अलैह, (वालिद माजिद आला हज़रत) भी इसी खानदान से वाबस्ता रहे हर तक़रीब (फंक्शन, पिरोगराम) में वो अपने यहाँ सादाते किराम को ज़रूर शरीक करते थे और उन का ऐजाज़ी हिस्सा दो गुनाह यानि डबल होता था।

ये खादिम नहीं मखदूम हैं

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब का बयान है के: एक कम उमर साहबज़ादे खाना दारी के कामो में इमदाद के लिए काशानए अक़दस में मुलाज़िम थे, बाद में मालूम हुआ के ये सय्यद ज़ादे हैं, लिहाज़ा घर वालों को ताकीद फरमा दी के सबज़ादे से खबर दार कोई काम न लिया जाए के मखदूम ज़ादाह हैं, खाना वगेरा और जिस शै, चीज़, की ज़रूरत हो हाज़िर कर दी जाए, जिस तनख्वाह का वादा है वो बतौरे नज़राना पेश होता रहे, चुनांचे हस्बुल इरशाद तामील होती रही, कुछ अरसा के बाद वो सबज़ादे खुद ही तशरीफ़ ले गए।

इन से कोई खिदमत न ली जाए

सय्यद वजाहत रसूल कादरी साहब तहरीर फरमाते हैं: अम्माए मुहतरमा (मेरी फूफी जान) सय्यदह हुस्ना बेगम रिवायत करती हैं के जब अहकर की दादी जान सय्यदह नज़ीर बेगम बरेली शरीफ आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी के दौलत कदे पर हाज़िर होती थीं तो उनकी आरज़ू होती की पीर के घराने की ख्वातीन की खिदमत की जाए, पीर के घर में जारूब कशी यानि झाड़ू लगाने की सआदत हासिल की जाए, लेकिन उनकी ये आरज़ू कभी पूरी न हो सकी क्यों के आला हज़रत अज़ीमुल बरकत और आप के बाद हज़रत हुज्जतुल इस्लाम मौलाना हामिद रज़ा खान का अपने घर वालों को ये हुक्म था के ये सय्यद ज़ादी हैं, खबर दार इन से कोई खिदमत ना ली जाए बल्के ये हमारी मखदूमा हैं इन को खिदमत की जाए और इन के आरामो आशा इश का पूरा पूरा ख़याल रखा जाए, चुनांचे दादी मुहतरमा के बकौल जितने आरामो आशा इश से वो अपने पीरो मुर्शिद के घर में रहती इतने आराम से कभी अपने घर में भी न रहीं।

आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु ने उनके हाथ चूम लिए

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब का बयान है के: फ़क़ीर और बिरादर सय्यद कनाअत अली के बैअत होने पर बा मौका ईदुल फ़ित्र बाद नमाज़ दस्त बोसी के लिए अवाम ने हुजूम किया, मगर जिस वक़्त सय्यद कनाअत अली, दस्त बोस हुए सय्यदी आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने उनके हाथ चूम लिए, ये ख़ाइफ़ और दीगर मुकर्राबाने ख़ास से तज़किरा किया तो मालूम हुआ के आप का यही मामूल है के बा मौका ईदैन दौराने मुसाफा सब से पहले जो सय्यद साहब मुसाफा करते हैं, आप उस की दस्त बोसी फ़रमाया करते हैं, गालिबन आप मौजूदा सादाते किराम में सब से पहले दस्त बोस हुए होंगें।

सादाते किराम को दो गुना (डबल) हिस्सा अता फरमाते

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब आला हज़रत की मुहब्बत सादात का एक और वाकिअ यूं बयान करते हैं: आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी के यहाँ मजलिसे मिलाद मुबारक में सादाते किराम को बा निस्बत और लोगों के दो गुनाह डबल हिस्सा बरवक़्त तकसीम शिरीनी मिला करता था और इसी का इत्तिबा अहले खानदान भी करते हैं, एक साहब बा मौका बारवी शरीफ माहे रबीउल अव्वल हुजूम में सय्यद महमूद जान साहब को ख़िलाफ़े मामूल एक हिस्सा यानि दो तश्तरियां शिरीनी की बिला क़स्द पहुंच गयीं, मौसूफ़ ख़ामोशी के साथ हिस्सा ले कर सीधे आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की खिदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया के हुज़ूर के यहाँ से आज मुझे आम हिस्सा मिला, फ़रमाया सय्यद साहब! तशरीफ़ रखिए और तकसीम करने वाले को फ़ौरन बुलाया गया और सख्त नाराज़गी का इज़हार करते हुए फ़रमाया: अभी एक सीनी (बड़ी पलेट) में जिस कदर हिस्से आ सकें भर कर लाओ चुनांचे फ़ौरन हुक्म की तामील हुई, सय्यद साहब ने अर्ज़ भी किया के हुज़ूर मेरा ये मकसद ना था, हाँ दिल को ज़रूर तकलीफ हुई जिसे बर्दाश्त न कर सका फ़रमाया सय्यद साहब! ये शिरीनी तो आप को क़ुबूल करना होगी वरना मुझे सख्त तकलीफ रहेगी, और शिरीनी बाटने वाले से कहा के एक आदमी को सय्यद साहब के साथ कर दो जो इस शिरीनी को इनके मकान पर पंहुचा दे उन्होंने फ़ौरन पंहुचा दिया।

सय्यद ज़ादों को इस तरह पुकारते हैं

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब ही ने ये वाकिअ भी बयान फ़रमाया है के: बाद नमाज़े जुमा आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी फाटक में तशरीफ़ फरमा हैं, और हाज़रीन का मजमा है, मौलवी नूर मुहम्मद साहब की आवाज़ बाहर से कनाअत अली! कनाअत अली! पुकारने लगे, इन्हें फ़ौरन तलब फ़रमाया और इरशाद फ़रमाया: सय्यद साहब! को इस तरह पुकारते हैं, कभी आप ने मुझे भी नाम लेते हुए सुना, मौलवी नूर मुहम्मद साहब ने निदामत से नज़र नीची कर ली, फ़रमाया तशरीफ़ ले जाइए और आइंदा से इस का लिहाज़ रखना,

इसी तज़किरे में फ़रमाया के: शरीफे मक्का! के ज़माने में हाजियों से टेक्स बड़ी सख्ती से वुसूल किया जाता था यहाँ तक के उस के कारकुन मस्तूरात (औरतें) भी जामा तलाशी लेते थे, एक आलिमे दीन मस्तूरात वहां पहुचतें हैं, इन की मस्तूरात के साथ भी वही बर्ताव किया गया, आलिम साहब को ये बात शाक (तकलीफ देह) गुज़री और उन्होंने रात भर शरीफे मक्का को बुरा भला कहा और बद्दुआएं दीं, सुबह होते ही आँख लग गयी ख्वाब में हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ज़ियारत से मुशर्रफ हुए, इरशाद फरमाते हैं, “मौलवी साहब क्या मेरी औलाद ही आप के बद दुआ करने को रह गई थी” फिर आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने इरशाद फ़रमाया सय्यद को अगर क़ाज़ी हद लगाए तो ये ख्याल न करे के में सज़ा दे रहा हूँ बलके तसव्वुर करे के शहज़ादे के पैरों में कीचड़ भर गई है उसे धो रहा हूँ।

एक जोड़ा कपड़ों का और उस के साथ दस रूपए अता फरमाए

जनाब सय्यद अय्यूब अली साहब! का बयान है के: ईदुल फ़ित्र के चार पांच रोज़ बाकी थे, बिरादरम कनाअत अली को ख़याल आया के इस बार मेरे पास नए कपड़े नहीं, इसी रोज़ ज़ोहर के बद आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी जब मस्जिद में वापस मकान तशरीफ़ ले जाने लगे तो कनाअत अली से फ़रमाया के यहीं ठहर जाओ, थोड़ी सेर के बाद हुज़ूर ने अंदरूनी चौखट पर खड़े हो कर इशारे से इन्हें करीब बुलाया, ये झिझके इस लिए के वो जगह ज़नान खाने से करीब थी, आप ने फ़रमाया तशरीफ़ ले आओ और किवाड़ बंद कर के आना, उन्होंने दोनों किवाड़ बंद कर दिए फ़रमाया ज़ंजीर डाल दीजिए उन्होंने हुक्म की तामील की, और डरते डरते कदम आगे बढ़ाया, आप ने एक जोड़ा कपड़ों का बे सिला, और उस के साथ दस रूपए का नोट अता फ़रमाया के इस जोड़े को अभी से घर ले जाओ यहाँ अपने पास ना रखना, ये एहतिमाम व ताकीद इस लिए थी के कोई दूसरा खबर दार न हो।

शहज़ादे हुज़ूर! ये छल्ले मुझे दे दीजिए

सज्जादा नशीन मारहरा मुक़द्दसा हज़रत सय्यद मेहदी हसन मियां रहमतुल्लाह अलैह फरमाते हैं, में जब बरेली शरीफ आता तो आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी खुद खाना खिलाते, और हाथ धुलाते, एक बार में ने सोने की अंगूठी और छल्ले पहने हुए थे, हस्बे दस्तूर जब हाथ धुलवाने लगे तो फ़रमाया: शहज़ादे हुज़ूर! ये अंगूठी छल्ले मुझे दे दो! में ने उतार कर दे दिए और मुंबई चला गया, मुंबई से जब मारहरा शरीफ वापस आया तो मेरी बेटी फातिमा ने कहा “अब्बा हुज़ूर! बरेली शरीफ के मौलाना साहब यानि आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! के यहाँ से पार्सल आया था, जिस में छल्ले अंगूठी और एक खत था जिस में ये लिखा था “शहज़ादी साहिबा ये दोनों तलाई चीज़ें आप की हैं (क्यों के मर्दों को इन का पहिनना जाइज़ नहीं)।

सय्यद साहब के घर जा कर बच्चे को दम किया

कारी अहमद साहब पीलीभीती बयान करते हैं के: आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी “मदरसतुल हदीस पीलीभीत” में क़याम फरमा थे, जभी सय्यद शौकत अली साहब खिदमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ करते हैं के हज़रत! मेरा लड़का सख्त बीमार है, तमाम हकीमो ने जवाब दे दिया है, यही एक बच्चा है सुबाह से नज़ा मोत की हालत तारी है, सख्त तकलीफ है में बड़ी उम्मीद के साथ आप की खिदमत में आया हूँ, आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! सय्यद साहब की परेशानी से बहुत मुतअस्सिर हुए और खुद उन के हमराह मरीज़ को देखने के लिए गए, मरीज़ को मुलाहिज़ा फ़रमाया फिर सर से पैर तक हाथ फेर फेर कर कुछ दुआएं पढ़ते रहे, सय्यद साहब फरमाते हैं के हज़रत के हाथ रखते ही मरीज़ को सेहत होना शुरू हो गई और सुबह तक वो मरता हुआ बच्चा आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी की दुआ की बरकत से बिलकुल तंदुरुस्त हो गया।

सय्यद साहब ने दाढ़ी रख ली

कारी अहमद साहब पीलीभीती बयान करते हैं के: एक बार आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी “मदरसतुल हदीस” पीलीभीत शरीफ में हज़रत मौलाना शाह मुहम्मद वसी अहमद मुहद्दिसे सूरति रहमतुल्लाह अलैह के पास मुकीम थे के सय्यद फ़रज़न्द अली साहब आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी से मिलने आते हैं और दस्त बोस होते हैं, सय्यद साहब की दाढ़ी नहीं थी, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी बहुत देर तक गहरी नज़रों से सय्यद साहब को देखते रहे, सय्यद साहब फरमाते हैं के आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की निगाहों ने मुझे अर्क अर्क कर दिया, ऐसा मालूम होता था के हुज़ूर मुझ को दाढ़ी रखने की खामोश हिदायत फरमा रहे हैं में सुबह को हाज़िर हुआ और अपने इस फेले शनीआ से तौबा की, आज में अपनी आँखों से देखता हूँ के सय्यद साहब का चेहरा निहायत खुशनुमा दाढ़ी से सजा हुआ है।

क़यामत वाले दिन भी इसी तरह मेरे सर पर साया कर दीजिए

मौलाना शाह खालिद मियां फाखरी साहब तहरीर फरमाते हैं ये वाक़िआ खुद में ने अपने वालिद माजिद मौलाना सय्यद शाहिद फाखरी साहब से सुना के जब हज़रत फखरुल उलमा शाह मुहम्मद फाखिर साहब का विसाल हुआ तो वो शदीद गर्मी का ज़माना था, एक दिन में खानकाह के उस हिस्से में जो खल्वत कहा जाता है सो रहा था के किसी ने आ कर जगाया के कोई बुज़रुग जिन के साथ चंद आदमी हैं “हज़रत फखरुल उलमा” के मज़ार पर फातिहा पढ़ रहे हैं, दो पहर का वक़्त था, में बनियान और लुंगी पहने हुए लेटा हुआ था, अभी में उठ ही रहा था के दूसरे आदमी ने आ कर बताया के बरैली से आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी तशरीफ़ लाए हैं, में घबरा कर एक छाता लिए हुए इसी हालत में बाहर निकला चूंके वफ़ात हादिसे को चंद ही दिन गुज़रे थे और मज़ार पर साया के लिए अभी कोई इंतिज़ाम नहीं हुआ था, में ने देखा के आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! सख्त धूप में आलमे इस तगराक में खड़े फातिहा पढ़ रहे हैं,

मेने छाता खोल कर साया कर दिया, जब आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी फातिहा पढ़ कर फारिग हुए मुझे देख कर रोने लगे और उन्होंने इरशाद फ़रमाया: शाहिद मियां! क़यामत में अगर मुझ से पूछा गया के एक सय्यद ज़ादा तेरे सर पर छाता लगा कर खड़ा था और तुझे खबर न थी तो में क्या जवाब दूंगा? फिर फ़रमाया अच्छा शाहिद मियां! ये वादा करो के जब क़यामत वाले दिन आफताब की तमाज़त यानि गर्मी भेजे पिघला रही होगी, उस वक़्त भी इसी तरह मेरे सर पर साया करोगे, फिर खानकाह शरीफ में तशरीफ़ लाए और चाय नोश फ़रमाई, मेरे वालिद माजिद ने इरशाद फ़रमाया के आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी का ये इरशाद एहतिरामे सादात के उसी जज़्बे का इज़हार है जो सादात के लिए उन के क्लब में मौजूद था।

पालकी रोक दो

रईसुत तहरीर हज़रत अल्लामा अर्शदुल कादरी रहमतुल्लाह अलैह अपने अदीबाना रंग में आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी की मुहब्बत सादात की एक दास्तान कुछ यूं लिखते हैं: इमामे अहले सुन्नत आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! की सवारी के लिए पालकी दरवाज़े पर लगा दी गई, सैंकड़ों मुश्ताकाने दीद इन्तिज़ार में खड़े थे, वुज़ू से फारिग हो कर कपडे ज़ेबे तन फरमाए, इमामा बांधा और आलिमाना वकार के साथ बाहर तशरीफ़ लाए, चेहराए अनवर से फ़ज़्लो तक्वा की किरने फूट रही थीं, शब् बेदार आँखों से फरिश्तों का तक़द्दुस बरस रहा था, तलआते जमाल की दिल कशी से मजमे पर एक रिक़्क़त अंगेज़ बे खुदी का आलम तारी था, गोया परवानो के हुजूम में एक शमआ फ़िरोज़ा मुस्कुरा रही थी, बड़ी मुश्किल से सवारी तक पहुंचने का मौका मिला,

कदम बोसी का सिलसिला ख़त्म होने के बाद पालकी उठाई, आगे पीछे, दाएं बाएं, नियाज़ मंदों की भीड़ हमराह यानि साथ चल रही थी, पालकी ले कर थोड़ी दूर ही चले थे के आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने आवाज़ दी, “पालकी रोक दो” हुकम के मुताबिक पालकी रोक दी गई, हमराह चलने वाला मजमा भी वहीं रुक गया, इज़्तिराब की हालत में बाहर तशरीफ़ लाए, पालकी उठाने वालों को अपने करीब बुलाया और आप ने दरयाफ्त किया, आप लोगों में कोई आले रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तो नहीं है? अपने जद्दे आला का वास्ता सच बताओ मेरे ईमान का ज़ोके लतीफ़ तने जानां की खुशबु महसूस कर रहा है,

इस सवाल पर अचानक उन में से एक शख्स के चेहरे का रंग बदल गया पेशानी पर गैरत व पशेमानी की लकीरें उभर आयीं बे नवाई अशोफ्ता हाली के आसार उस के अंग अंग से ज़ाहिर थे, काफी देर तक खामोश रहने के बाद नज़र झुकाए हुए दबी ज़बान से कहा: मज़दूर से काम लिया जाता है ज़ात पात नहीं पूछी जाती, आह आप ने मेरे जद्दे आला का वास्ता दे कर मेरी ज़िन्दगी का एक सर बस्ता राज़ फाश कर दिया, समझ लीजिए के में उसी चमन का मुरझाया हुआ फूल हूँ जिस की खुशबु से आप की मशामे जां मुअत्तर है रगों का खून नहीं बदल सकता इसलिए आले रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम होने से इंकार नहीं है, लेकिन अपनी खा नुमा बर्बाद ज़िन्दगी को देख कर ये कहते हुए शर्म आती है, चंद महीने से आप के इस शहर में आया हूँ, कोई हुनर नहीं जानता के उसे अपना ज़रियाए मआश बनाऊं, पालकी उठाने वालों से राब्ता काइम कर लिया है, रोज़ सवेरे इन के झुण्ड में आ कर बैठ जाता हूँ और शाम को अपने हिस्से की मज़दूरी ले कर अपने बच्चों में लोट जाता हूँ, अभी उस की बात तमाम न हुई थी के लोगों ने पहली बार तारिख का ये हैरत अंगेज़ वाक़िआ देखा के आलमे इस्लाम के एक मुक़्तदार इमाम की दस्तार उसके कदमो पर रखी हुई थी और वो बरसते हुए आंसुओं के साथ फूट फूट कर इल्तिजा कर रहा था, मुअज़्ज़ज़ शहज़ादे! मेरी गुस्ताखी माफ़ कर दो, ला इल्मी में ख़ता सरज़द हो गई है, हाए गज़ब हो गया जिन के कफे पा का ताज मेरे सर का सब से बड़ा ऐजाज़ है उनके कंधे पर मेने सवारी की, क़यामत के दिन अगर कहीं हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने पूछ लिया के अहमद रज़ा! क्या मेरे फ़रज़न्द का कांधा इस लिए था के वो तेरी सवारी का बोझ उठाए तो में क्या जवाब दूँगा उस वक़्त भरे मैदाने हश्र में मेरे नामूसे इश्क की कितनी बड़ी रुस्वाई होगी? आह इस होलनाक तसव्वुर से कलेजा शक हुआ जा रहा है, देखने वालों का बयान है के जिस तरह एक आशिक दिल गिर रूठे हुए महबूब को मनाता है बिलकुल उसी अंदाज़ में वक़्त का अज़ीम मुजद्दिद! उसकी मिन्नत समाजात कर रहा था, और लोग फटी हुई आँखों से इश्क की नाज़ बरदारियों का ये रिक़्क़त अंगेज़ तमाशा देख रहे थे यहाँ तक के कई बार ज़बान से माफ़ भी कर दिया इस के बाद भी आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! ने फिर अपनी एक आखरी इल्तिजा पेश की,

“अब तुम पालकी में बैठो” और में इसे अपने काँधे पर उठाऊंगा” इस इल्तिजा पर जज़्बात के तलातुम से लोगों के दिल हिल गए, फ़िज़ा में चीखें बुलंद हो गईं, हज़ार इंकार के बावजूद आखिर सय्यद ज़ादे को ज़िद पूरी करने पड़ी, आह वो मंज़र कितना रिक़्क़त अंगेज़ और दिल गुज़ार था, जब अहले सुन्नत का जलीलुल कदर इमाम व अज़ीम मुजद्दिद! डोली उठाने वालों की कतार से लग कर अपने इल्मों फ़ज़ल, जुब्बाओं दस्तार और अपनी आलम गीर शोहरत का सारा ऐजाज़ ख़ुशनूदिए हबीब हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के लिए एक गुमनाम मज़दूर के लिए कदमो पर निसार कर रहा था, शोकते इश्क का ये ईमान अफ़रोज़ नज़ारा देख कर पथ्थरों के दिल पिघल गए, गफलतों की आँख खुल गई और दुश्मनो को फिर मान लेना पड़ा के आले रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ जिस के दिल में ऐसी अकीदत व इखलास का ये आलम है, तो हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथ उस की वारफतागि मुहब्बत का अंदाज़ा कौन लगा सकता है, अहले इंसाफ को इस हकीकत के ऐतिराफ़ में कोई तअम्मुल नहीं हुआ के नज्द से ले कर सहारनपुर तक हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के गुस्ताखों के खिलाफ अहमद रज़ा! की बरहमी क़तअन हक बा जानिब है।

इन्हें बुलाओ शहज़ादी! कहीं नाराज़ न हो जाएं

आप की ये मुहब्बते सादात आप की औलाद में भी सरायत किए हुए थी, चुनांचे मौलाना अब्दुल मुज्तबा रज़वी साहब लिखते हैं के: एक बार गर्मी की दोपहर में एक खातून एक बच्चे के साथ तावीज़ लेने के लिए खानकाहे रज़विया में आईं, लोगों ने बताया के हुज़ूर मुफ्तिये आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह सो रहे हैं, मगर उन्हें तावीज़ की सख्त ज़रूरत थी, उन्होंने फिर कहिलवाया के एक बार देख लिया जाए के शायद हज़रत जागे हों और मुझे तावीज़ मिल जाए मगर हज़रत के पास किसी को जाने की हिम्मत न हुई, बिला आखिर वो खातून अपने बच्चे से बोलीं: चलो बेटे ये क्या मालूम था के अब यहाँ सय्यदों की बातें नहीं सुनी जातीं, ना मालूम हज़रत ने कैसे सुन लिया और खादिम को आवाज़ दे कर कहा: जल्दी जा कर उन्हें बुला लाओ शहज़ादी! कहीं नाराज़ न हो जाएं, उन्हें रोक लिया गया बच्चा हज़रत के पास गया हज़रत ने नाम पूछा उसने बताया हज़रत ने उस बच्चे को बड़ी इज़्ज़त मुहब्बत के साथ बिठाया, प्यार से सर पर हाथ फेरा सेब मंगा कर दिया फिर परदे की आड़ में मुहतरमा खातून से हाल मालूम कर के उसी वक़्त तावीज़ लिख दिया और घर में ये कह कर रुकवा लिया के धुप खत्म हो जाए तब जाने देना और इन की खातिर मदारत में कमी ना करना।

देखा मुझे पहचानने वाले पहचानते हैं

एक दफा का वाक़िआ है के उर्से रज़वी के मोके पर एक गरीब सय्यद साहब जो अभी जवान थे और दीवानो जैसी बातें करते थे तशरीफ़ लाए और कहा मुझे खाना दो, मुन्तज़िमीन ने कहा के अभी नहीं, इतनी देर में सय्यद साहब आलमे दीवानगी में हुज़ूर मुफ्तिये आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह की खिदमत में हाज़िर हो गए और कहा देख लीजिए ये लोग मुझे खाना नहीं दे रहे हैं, में भूका भी हूँ और सय्यद भी, आप ने उन सय्यद साहब का हाथ पकड़ कर अपने पास तख़्त पर बिठा लिया डबडबाती आँखों से फ़रमाया के हुज़ूर सय्यद साहब! पहले आप ही को खाना मिलेगा ये सब आप ही का है, वो सय्यद साहब बहुत खुश हुए और हुज़ूर मुफ्तिये आज़म हिन्द रहमतुल्लाह अलैह ने जनाब साजिद अली खान साहब! को बुला कर फ़ौरन हिदायत फ़रमाई के: सय्यद साहब को ले जाओ और इन की मौजूदगी में फातिहा दिलवाइए और सब से पहले खाना इन को दीजिए ये तबर्रुक फ़रमालें तो सब को खिलाना अब क्या था सय्यद साहब अकड़े हुए निकले और कहने लगे “देखा मुझे पहचानने वाले पहचानते हैं”।

आप खुद सय्यद क्यों ना थे

“हुज़ूर सय्यदुल उलमा” हज़रत मौलाना सय्यद आले मुस्तफा मियां साहिबे सज्जादा नशीन आस्ताना आलिया बरकातिया मारहरा मुक़द्दसा फरमाते हैं के: में ने इस बात पर बहुत ही गौर किया के आला हज़रत रदियल्लाहु अन्हु! हर फ़ज़ीलतो करामत के हामिल थे और उनकी ज़ाते बा बरकात मज़हरे ज़ातो सिफ़ात सरवरे काइनात हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम थी लेकिन अल्लाह पाक ने आप को पठान कोम में क्यों पैदा फ़रमाया? गौर किया तो समझ में आया के अगर वो सय्यद होते और सय्यद हो कर सय्यदों का अदब व एहतिराम इस शान से करते, उनकी ताज़िमों तौकीर का खुत्बा इस तरह पढ़ते, तो लोग ये कह सकते थे के मियां अपने मुँह ही अपनी तारीफ कर रहे हैं, और अपनी ताज़िमों तौकीर करवाने की गरज़ से ये तरीका अपना रहे हैं, लिहाज़ा अल्लाह पाक की ये हिकमत ज़ाहिर हुई के सादाते किराम में उनको पैदा ना फरमा कर आदाए दीन का रोज़े क़यामत तक के लिए मुँह बंद फरमा दिया, आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फाज़ले बरेलवी ने जिस शान से सय्यदों का अदबों एहतिराम फ़रमाया और सादात की ताज़िमों तौकीर कर के उम्मत को दिखाया, तारिख में इस की मिसाल नहीं मिलती।

हमे अहमद रज़ा का इन्तिज़ार है

25, सफारुल मुज़फ्फर 1340, हिजरी को बैतुल मुकद्द्स में एक शामी बुज़रुग रहमतुल्लाह अलैह ने ख्वाब में अपने आप को दरबारे रिसालत हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में पाया, तमाम सहाबाए किराम रिद्वानुल्लाही तआला अलैहिम अजमईन दरबार में हाज़िर थे लेकिन मजलिस में सुकूत तारी था और ऐसा मालूम होता था के किसी आने वाले का इन्तिज़ार है मुल्के शाम के शामी बुज़रुग रहमतुल्लाह अलैह ने दरबारे रिसालत हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में अर्ज़ की हुज़ूर! मेरे माँ बाप आप पर कुर्बान हों किस का इन्तिज़ार है? हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया: “हमे अहमद रज़ा का इन्तिज़ार है” शामी बुज़रुग रहमतुल्लाह अलैह ने अर्ज़ की, हुज़ूर अहमद रज़ा कौन हैं? इरशाद हुआ, हिंदुस्तान में बरैली के बाशिंदे हैं, बेदारी के बाद वो शामी बुज़रुग रहमतुल्लाह अलैह ने “मौलाना अहमद रज़ा रहमतुल्लाह अलैह” की तलाश में हिंदुस्तान की तरफ चल पड़े और जब वो बरैली शरीफ आए तो उन्हें मालूम हुआ के इस आशिके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का इसी रोज़ यानि 25, सफारुल मुज़फ्फर 1340, हिजरी को विसाल हो चुका है जिस रोज़ उन्होंने ख्वाब में सरवरे काइनात हुज़ूर नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को ये कहते सुना था के “हमे अहमद रज़ा का इन्तिज़ार है।

रेफरेन्स हवाला:

  • तज़किराए मशाइखे क़ादिरिया बरकातिया रज़विया
  • सवानेह आला हज़रत
  • सीरते आला हज़रत
  • तज़किराए खानदाने आला हज़रत
  • तजल्लियाते इमाम अहमद रज़ा
  • हयाते आला हज़रत अज़
  • फाज़ले बरेलवी उल्माए हिजाज़ की नज़र में
  • इमाम अहमद रज़ा अरबाबे इल्मो दानिश की नज़र में
  • फ़ैज़ाने आला हज़रत
  • हयाते मौलाना अहमद रज़ा बरेलवी
  • इमाम अहमद रज़ा रद्दे बिदअतो व मुन्किरात
  • इमाम अहमद रज़ा और तसव्वुफ़

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